Tuesday, 5 May 2020
Monday, 4 May 2020
भगवान् के प्रेम और रहस्य की बातें 2 गीता का प्रचार
गीता का प्रचार
प्रथम तो गीता का प्रचार अपनी आत्मा में करना चाहिए। पहले सिपाही बनकर सीखेंगे, तभी तो कमाण्डर बनकर सिखलावेंगे। आप जितनी मदद चाहें उतनी मिल सकती है। एक ही व्यक्ति स्वामी शंकराचार्य ने कितना प्रचार किया, भगवान की शक्ति थी। भगवान ने यह कहीं नहीं कहा कि शंकराचार्य से बढ़कर कोई नहीं होगा, किन्तु गीता का प्रचार करने वाले के लिये कहा है।
हरेक प्रकारसे गीता का प्रचार करना चाहिए। भगवान की भक्ति के सभी अधिकारी हैं। गीता बालक, युवा, वृद्ध, सभी के लिये है।
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥
(गीता ९। ३२-३३)
हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि-चाण्डाल आदि जो कोई भी हों, वे भी मेरी शरण होकर प्रकृति को ही प्राप्त होते हैं। फिर इसमें तो कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं। इसलिये तू सुख रहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।
जातिसे नीच या आचरणसे नीच, कोई भी हो, भगवान की कृपासे सबका उद्धार हो सकता है।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥
(गीता ९। ३०-३१)
यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है। हे अर्जुन ! तू निश्चय पूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।
सार यही है कि भगवान काम के लिये कटिबद्ध होकर लग जाना चाहिये। स्वधर्मे निधनं श्रेयः अपने धर्मपालन में मरना भी पड़े तो कल्याण ही है। बन्दरों ने भगवान का काम किया-उनमें क्या बुद्धि थी। गीताका प्रचार भगवान का ही काम है, कोई भी निमित्त बन जाय। जितने निमित्त बने, उससे कितना अधिक प्रचार हो रहा है। मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा को ठोकर मारकर काम करो, फिर देखो भगवान पीछे-पीछे फिरते हैं। सारा काम भगवान् स्वयं ही करते हैं। तैयार होकर करो, डरो मत। विश्वास करो-लुटिया डुबाने वाला कोई नहीं है।
- परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन श्रीजयदयाल जी गोयन्दका -सेठजी
पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें , कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर
Wednesday, 29 April 2020
श्रीभगवन्नाम - 4 श्रद्धा पर एक दृष्टान्त
श्रद्धा
पर एक दृष्टान्त
एक समय शिवजी महाराज पार्वती के साथ हरिद्वार में घूम
रहे थे। पार्वती ने देखा कि सहस्रों मनुष्य गंगा नहा-नहाकर हर-हर करते चले जा रहे
हैं; परंतु प्रायः सभी दुःखों और पाप-परायण हैं। पार्वती ने
बड़े आश्चर्य के साथ शिवजी से पूछा कि ‘हे देवदेव! गंगा में इतनी बार स्नान करनेपर भी इनके पाप
और दुखों का नाश क्यों नहीं हुआ? क्या गंगा में सामर्थ्य नहीं रही?’ शिवजी ने
कहा-’प्रिये! गंगा में तो वही सामर्थ्य है; परंतु इन लोगों ने पाप नाशिनी गंगा में स्नान ही नहीं
किया है तब इन्हें लाभ कैसे हो?’ पार्वती ने साश्चर्य कहा कि ‘स्नान कैसे नहीं
किया? सभी तो नहा-नहाकर आ रहे हैं? अभी तक उनका शरीर भी नहीं सूखे हैं।’ शिवजी ने कहा—‘ये केवल जल में डुबकी लगाकर आ रहे हैं। तुम्हें कल इसका
रहस्य समझाऊँगा।’
दूसरे दिन बड़े जोर की बरसात होने लगी गलियाँ कीचड़ से
भर गयी एक चौड़े रास्ते में एक गहरा गड्ढा था, चारों ओर लपटीला कीचड़ भर रहा था। शिवजी ने लीला से ही वृद्ध-रूप धारण कर
लिया और दीन-विवश की तरह गड्ढे में जाकर ऐसे पड़ गये जैसे कोई मनुष्य चलता-चलता
गड्ढे में गिर पड़ा हो और निकलने की चेष्टा करनेपर भी न निकल सकता है ।
पार्वती को यह समझाकर गड्ढे के पास बैठा दिया कि ‘देखो! तुम लोगों को सुना-सुनाकर यों पुकारती रहो कि मेरे वृद्ध पति
अकस्मात् गड्ढे में गिर पड़े हैं, कोई
पुण्यात्मा इन्हें निकाल कर इनके प्राण बचावे और मुझ असहाय की सहायता करे।’ शिवजी ने यह और समझा दिया कि जब कोई गड्ढे से मुझे निकालने को तैयार हो तब
इतना और कह देना कि ‘भाई!
मेरे पति सर्वथा निष्पाप हैं, इन्हें वही छुए जो स्वयं निष्पाप हो, यदि आप निष्पाप हैं तो इनके हाथ लगाओ, नहीं तो हाथ लगाते ही आप भस्म हो जायँगे।’ पार्वती ‘तथास्तु’ कहकर गड्ढेके किनारे बैठ गयीं और आने-जाने वालों को
सुना-सुनाकर शिव जी की सिखायी हुई बात कहने लगीं। गंगा में नहाकर लोगों के
दल-के-दल आ रहे हैं। सुन्दरी युवती को यों बैठी देखकर कइयों के मनमें पाप आया, कई लोक-लज्जा से डरे तो कइयों को कुछ धर्म का भय हुआ, कई कानून से डरे। कुछ लोगों ने तो पार्वती को यह सुना भी दिया कि मरने दे
बुड्ढे को! क्यों उसके लिये रोती है? आगे और कुछ
भी कहा, मर्यादा भंग होने के भयसे वे शब्द लिखे नहीं जाते। कुछ
दयालु सच्चरित्र पुरुष थे, उन्होंने
करुणा वश हो, युवती के के पति को निकालना चाहा, परंतु पार्वती के वचन सुनकर वे भी रुक गये। उन्होंने
सोचा कि हम गंगा में नहाकर आये हैं तो क्या हुआ, पापी तो हैं ही, कहीं होम करते हाथ न जल जायँ। बूढ़े को निकालने जाकर इस स्त्री के कथनानुसार हम स्वयं
भस्म न हो जायँ। सुतरां किसी का साहस नहीं हुआ। सैकड़ों आये, सैकड़ों ने पूछा और चले गये सन्ध्या हो चली। शिवजी ने कहा पार्वती ! देखा, आया कोई गंगा में नहाने वाला ?"
-
परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार
पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338),
गीताप्रेस, गोरखपुर
थोड़ी देर बाद एक जवान हाथ में लोटा लिये हर-हर करता हुआ
निकला, पार्वती ने उससे भी वही बात कही। युवक का हृदय करुणा से
भर आया। उसने शिवजी निकालने की तैयारी की। पार्वती ने रोककर कहा कि ‘भाई! यदि तुम सर्वथा निष्पाप नहीं होओगे तो मेरे पति को छूते ही जल जाओगे।’ उसने उसी क्षण बिना किसी संकोच के दृढ़ निश्चय के साथ पार्वती से कहा कि ‘माता!
मेरे निष्पाप होने में तुझे संदेह क्यों होता है? देखती
नहीं, मैं
अभी गंगा नहाकर आया हूँ। भला गंगा में गोता लगाने के बाद भी कभी पाप रहते हैं? तेरे पति को निकालता हूँ।’ युवक ने
लपककर बूढ़े को ऊपर उठा लिया। शिव-पार्वती ने उसे अधिकारी समझकर अपना असली स्वरूप
प्रकट कर उसे दर्शन देकर कृतार्थ किया। शिवजी ने पार्वती से कहा कि ‘इतने लोगों में से इस एक ने ही वास्तव में गंगा स्नान
किया है।’ इसी दृष्टान्त के अनुसार जो लोग बिना श्रद्धा और विश्वास के केवल
दम्भ के लिये नाम-ग्रहण करते हैं, उन्हें
वास्तविक फल नहीं मिलता; परंतु
इसका यह मतलब नहीं कि नाम-ग्रहण व्यर्थ जाता है।
-
परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार
पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338),
गीताप्रेस, गोरखपुर
Thursday, 23 April 2020
भगवान् के प्रेम और रहस्य की बातें
भगवान् के प्रेम और रहस्य की बातें
आज भगवान् के प्रेम, प्रभाव और रहस्य की बातें कहने का विचार किया गया है। एक सज्जन ने कहा कि धर्म की लुटिया डूब रही है। इस विषय में निवेदन है कि आपको यह विश्वास रखना चाहिये कि जिसका नाम सनातन है, उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। हाँ, किसी समय दब जाता है, किसी समय जोर पकड़ लेता है। लोग इस समय इसके नाश के लिये कटिबद्ध हो रहे हैं, पर हम लोगों को उस अनन्त शक्तिमान की शक्ति सहारा लेकर इसके प्रचार के लिये निमित्त मात्र बन जाना चाहिये। यश ले लो, निमित्त मात्र बन जाओ। जो कोई अपनी सामर्थ्य मानता है, उसे भगवान् मुँह-तोड़ उत्तर देते हैं। शक्ति भगवान् की है और अपनी माने, भगवान् इसको नहीं सहते। केनोपनिषद्की कथा है-एक बार देवता ओं को अपने बल का अभिमान हो गया। यक्ष रूपमें भगवान् प्रकट हुए। अग्नि, वायु, इन्द्र क्रमश: उनके पास गये। पूरे ब्रह्मांड को जलाने, उड़ाने की बात करनेवाले एक तिनके को भी जलाने, उड़ाने में असमर्थ हो गये। उमा के रूप में साक्षात् परमात्मा ने प्रकट होकर इन्द्र को बताया कि सारी शक्ति, तेज-प्रभाव सब कुछ भगवान् का ही है।
यही बात हम लोगों को समझनी चाहिये। जो कोई भी अभिमान से बात करता है, उसे भगवान् नहीं सह सकते। हाँ, स्वामी के बल पर हम लोगों को किसी से डरने की क्या आवश्यकता है। पुलिस के दस रुपये महीने के सिपाही के मन में एक बड़े करोड़पति सेठ को, जिसके दरवाजे पर बन्दूकों के पहरे लगते हैं, हथकड़ी डालकर ले जाने में क्या भय होता है? उसके पीछे सरकार का बल है। इसी प्रकार जो कोई भी अच्छे काम में निमित्त बनना चाहता है, उसे भगवान् बना देते हैं। पुलिस का सिपाही होकर भी जो कहे कि मैं सेठ को कैसे पकड़ सकता हूँ-वह पुलिस की नौकरी के लायक नहीं है। भगवान् के दास होकर अपनी कमजोरी का विचार क्यों करें। भगवान् का बल है। जो धर्म से डरता है, उसके सारे कार्य अन्त में सिद्ध होते हैं।
हरिश्चन्द्र देखिये-कितने संकट आये। राज्य चला गया, पुत्र मर गया, स्त्री शव लेकर जलाने आती है, हरिश्चन्द्र स्वामी का कर माँगते हैं। स्त्री कहती है-महाराज यह आपका पुत्र है, इसके लिये कफन ही नहीं है, कर कहाँ से दूँ। राजा कहते हैं तू अपना आधा वस्त्र कर के रूपमें दे दे, उसे बेचकर कर जमा करा दूंगा। रानी कहती है, काट लें। हरिश्चन्द्र तलवार लेकर ज्यों-ही काटना चाहते हैं, बस भगवान् प्रकट हो जाते हैं, भगवान् और नहीं सह सकते। हरिश्चन्द्र के धर्म पालन के परिणाम स्वरूप सारे नगर का उद्धार हो गया। धर्म पालन में यदि कष्ट नहीं होता तो सभी धर्मपरायण हो जाते। इस कष्ट सहन का परिणाम देखो। इस प्रकार के परोपकारी जीवों की चरण धूलि के लिये भगवान् उनके पीछे-पीछे फिरते हैं। ब्रह्मा कहते हैं-हमारे मस्तक पर चरण धरकर हमें पवित्र करके आप लोग आगे जाइये। कितनी बड़ी बात कहते हैं।
शक्ति भगवान् की, भगवान् करवाते हैं, सब कुछ भगवान् का ही है। पर भगवान् शक्ति किसे देते हैं, जो लेना चाहता है। हम लोग मूर्खता वश अभिमान कर बैठते हैं कि मेरी शक्ति है। बस 'मैं (अहंकार)' आते ही भगवान् का थप्पड़ लगता है, चेत हो जाता है। यह भगवान् की कृपा है। गुरु जैसे थप्पड़ लगाकर चेत करा देते हैं। भगवान् अपने भक्त का अभिमान नहीं सह सकते।
माँ बच्चे के रोने की परवाह न करके फोड़ा चिरवा ही देती है। अतः लक्ष्मण की तरह बोलो 'तव प्रताप बल नाथ।' यह मत भूलो। भगवान् के बल का आश्रय रखो। उसके बल पर सब हो सकता है। चूरू में मोचियों के पास एक राज कर्मचारी कर लेने के लिये गया। उनके अभी कर देने में असमर्थता जताने पर राजकर्मचारी उन्हें गालियाँ देने लगा। उसके हाथ में राजकीय छड़ी थी। मोचियों ने कहा-हम महाराज साहब की छड़ी का सम्मान करते हुए आपकी गालियाँ सहन कर रहे हैं। उसने छड़ी फेंक दी। मोचियों ने उसकी खूब पिटाई की। राजा के पास शिकायत जाने पर मोचियों ने कहा-अन्नदाता ! इसने आपकी छड़ी फेंक दी। हमें यह कैसे सहन होती। इसी प्रकार हम अपना प्रभाव मानें, तब जूते पड़ेगे। जैसे उस कर्मचारी को मोचियों के जूते पड़े और हमारे यमराज के पड़ेगे।
भगवान् शक्ति को समझने पर कुछ भी दुर्लभ नहीं है। आप को भय करने की आवश्यकता नहीं, कितना ही बड़ा काम हो-भगवान् की कृपा से सब कुछ हो सकता है। एक मामूली व्यक्ति सारे संसार में भगवान् के भावों का प्रचार कर सकता है।
भगवान् कहते हैं—
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।
(गीता १८। ६९)
उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है; तथा पृथ्वी भार में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं।
- श्री जयदयाल जी गोयन्दका -सेठजी
पुस्तक- भगवत्प्राप्ति की अमूल्य बातें , कोड-2027, गीताप्रेस गोरखपुर
Friday, 17 April 2020
श्रीभगवन्नाम -3 नाम-महिमा केवल रोचक वाक्य नहीं
नाम-महिमा केवल रोचक वाक्य नहीं—
यह सर्वथा यथार्थ तत्व है। बड़े-बड़े ऋषियों और
संत-महात्माओं ने नाम-महिमा का प्रत्यक्ष अनुभव करके ही उसके गुण गाये हैं। अब भी
ऐसे लोग मिल सकते हैं जिन्हें नाम की प्रबल शक्ति का अनेक बार, अनेक तरहसे अनुभव हो चुका है। परन्तु वे लोग उन सब रहस्यों को अश्रद्धालु
और नामापमानकारी लोगों के सामने कहना नहीं चाहते, क्योंकि यह भी एक नामका अपराध है—
अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति यश्चोपदेशः
शिवनामापराध:।
'अश्रद्धालु, नाम विमुख और सुनना न चाहने वाले को नाम का उपदेश करना
कल्याण रूप नाम का एक अपराध है।'
जो नाम के रसिक हैं, जिन्हें इसमें असली रसास्वाद का कभी अवसर प्राप्त हो गया है वे तो फिर
दूसरी ओर भूलकर भी नहीं ताकते। न उन्हें शरीर की कुछ परवा रहती है और न जगत् की।
मतवाले शराबी की तरह नाम प्रेम में मस्त हुए वे कभी हँसते
हैं, कभी रोते हैं, कभी गाते हैं, कभी नाचते हैं। उनके लिये फिर कोई अपना-पराया नहीं रह जाता। ऐसे
ही प्रेमियों के सम्बन्ध में महात्मा सुन्दरदास जी लिखते हैं
प्रेम
लग्यो परमेश्वरसों तब भूलि गयो सिगरो घरबारा।
ज्यों
उन्मत्त फिरे जित ही तित नेकु रही न सरीर सँभारा॥
स्वास
उस्वास उठे सब रोम चले दृग नीर अखंडित धारा।
सुन्दर
कौन करै नवधाविधि छाकि परयो रस पी मतवारा॥
वास्तव में ऐसे ही पुरुष नाम के यथार्थ भक्त हैं और
इन्हीं लोगों द्वारा किया हुआ नामोच्चारण जगत को पावन
कर देता है, जहाँतक ऐसी प्रेमकी मस्ती न प्राप्त हो, वहाँ तक प्रेम मार्ग में भी शास्त्रों की मर्यादा का
पूरा रक्षण करना चाहिये। भगवान
नारद कहते हैं—
अन्यथा
पातित्याशङ्कया । (नारद भक्ति सूत्र १३)
'नहीं तो पतित होनेकी आशंका है', अतएव आरम्भ में अपने-अपने वर्णाश्रमानुमोदित
सन्ध्या-वन्दन, पिता-माता
आदि की सेवा, परिवार संरक्षण आदि वैदिक और लौकिक कार्य को
करते हुए श्रीभगवन्नाम का आश्रय ग्रहण करना चाहिये। स्मृति कर्म के त्याग की आवश्यकता नहीं है, यथासमय और यथास्थान उनका आचरण अवश्य करना चाहिये। रामनाम
ऐसा धन नहीं है जो ऐसे-वैसे कामोंमें खर्च किया जाय। जो मनुष्य मामूली-सा
काँच का टुकड़ा खरीदने जाकर बदले में बहुमूल्य हीरा दे आता है वह कभी बुद्धिमान् नहीं
कहलाता। इसी प्रकार जो कार्य लौकिक या स्मृति विहित
कर्मों के आचरण से सिद्ध हो सकता है, उसमें नाम का प्रयोग करना राजाधिराज से झाड़ दिलवाने के
समान है सोने मिट्टी के
भाव बेचने के समान है; अतएव नाम-जप में स्मृति विहित कर्मों के त्याग की कोई
आवश्यकता नहीं।
कुछ लोगोंकी यह आशंका है कि आजकल नाम लेने वाले तो बहुत
लोग देखे जाते हैं, परंतु उनकी दशा देखते हैं तो मालूम होता है कि उनको कोई
लाभ नहीं हुआ। जिस नामके एक बार उच्चारण करने मात्र से
सम्पूर्ण पापों का नाश होना बतलाया जाता है, उस नाम को लाखों बार आवृत्ति करनेपर भी लोग पापों में
प्रवृत्त और दुःखी देखे जाते हैं, इसका क्या कारण है? इसके उत्तर में
पहली बात तो यह है कि लाखों बार नाम की आवृत्ति उनके द्वारा वस्तु: होती नहीं, धोखे से
समझ ली जाती है।
दूसरा कारण यह है कि उनकी नाममें
यथार्थ श्रद्धा नहीं है। नाम के इस माहात्म्य में उन्हें स्वयं ही संशय है। भगवान् ने गीता में कहा है-'संशयात्मा विनश्यति', इसलिए उन्हें
पूरा लाभ नहीं होता। भजन में श्रद्धा ही फल सिद्धि का मुख्य साधन है।
अवश्य ही भजन करने वाले में श्रद्धा का कुछ अंश तो रहता ही है। यदि श्रद्धा का सर्वथा अभाव हो तो भजन में प्रवृत्ति ही न
हो। बिना किंचित् श्रद्धा हुए किसी कार्य विशेष में प्रवृत्त होना बड़ा
कठिन है। अतएव का नाम ग्रहण करते हैं उनमें श्रद्धाका कुछ अंश तो अवश्य है, परंतु श्रद्धा
के उस क्षुद्र अंश की अपेक्षा संशय की मात्रा कहीं अधिक है, इसलिए उन्हें वास्तविक फल से वंचित रहना पड़ता है। गंगा स्नान पापों का अशेष नाश होना बताया गया है; परन्तु नित्य गंगा स्नान करने वाले लोग भी पाप में प्रवृत्त होते देखे जाते
हैं (यद्यपि एक
बार का भी भगवन्नाम - हजारों बार के गंगा स्नान से बढ़कर है)।
- परम श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार
पुस्तक- श्रीभगवन्नाम-चिन्तन(कोड-338), गीताप्रेस, गोरखपुर
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