नाथ मैं थारो जी थारो।
चोखो, बुरो, कुटिल अरु कामी, जो कुछ हूँ सो थाँरो॥
बिगड्यो हूँ तो थाँरो बिगड्यो, थे ही मनै सुधारो।
सुधरयो तो प्रभु सुधरयो थाँरो, थाँ सूँ कदे न न्यारो॥
बुरो, बुरो, मैं भोत बुरो हूँ , आखर टाबर थाँरो।
बुरो कुहाकर मैं रह जास्यूँ, नाँव बिगङ्सी थाँरो ॥
थाँरो हूँ, थाँरो ही बाजूँ, रहस्यूँ थाँरो, थाँरो !!!
आँगलियाँ नुँहँ परै न होवै, या तो आप बिचारो॥
मेरी बात जाय तो जाओ, सोच नहीं कछु न्हाँरो।
मेरो बङो सोच योंं लाग्यो बिरद लाजसी थाँरो॥
जचे जिस तराँ करू नाथ ! अब, मारो चाहै त्यारो।
जाँघ उखाङयाँ लाज मारोगा, ऊँडी बात बिचरो॥
(पद-रत्नाकर, पद-१३०)
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