हटे वह सामनेसे, तब कहीं मैं अन्य कुछ देखूँ।
सदा रहता बसा मनमें तो कैसे अन्यको लेखूँ ?
उसीसे बोलनेसे ही मुझे फ़ुरसत नहीं मिलती।
तो कैसे अन्य चर्चाके लिये फिर जीभ यह हिलती ?
सुनाता वह मुझे मीठी रसीली बात है हरदम।
तो कैसे मैं सुनूँ किसकी, छोड़ वह रस मधुर अनुपम ?
समय मिलता नहीं मुझको टहलसे एक पल उसकी।
छोडक़र मैं उसे, कैसे करूँ सेवा कभी किसकी ?
रह गयी मैं नहीं कुछ भी किसीके कामकी हूँ अब।
समर्पण हो चुका मेरा जो कुछ भी था उसीके सब॥
from padratnakar ४८२
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