Tuesday, 18 October 2011

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे


हु‌आ समर्पण प्रभु-चरणोंमें जो कुछ था सब-मैं-मेरा।
 अग-जगसे उठ गया सदाको चिर-संचित सारा डेरा॥
 मेरी सारी ममताका अब रहा सिर्फ प्रभुसे सबन्ध।
 प्रीति, प्रतीति, सगा‌ई सबही मिटी, खुल गये सारे बन्ध॥
 प्रेम उन्हींमें, भाव उन्हींका, उनमें ही सारा संसार।
 उनके सिवा, शेष को‌ई भी बचा न जिससे हो व्यवहार॥
 नहीं चाहती जाने को‌ई मेरी इस स्थितिकी कुछ बात।
 मेरे प्राणप्रियतम प्रभुसे भी यह सदा रहे अजात॥
 सुन्दर सुमन सरस सुरभित मृदुसे मैं नित अर्चन करती।
 अति गोपन, वे जान न जायें कभी, इसी डरसे डरती॥
 मेरी यह शुचि अर्चा चलती रहे सुरक्षित काल अनन्त।
 रहूँ कहीं भी कैसे भी, पर इसका कभी न आये अन्त॥
 इस मेरी पूजासे पाती रहूँ नित्य मैं ही आनन्द।
 बढ़े निरन्तर रुचि अर्चामें, बढ़े नित्य ही परमानन्द॥
 बढ़ती अर्चा ही अर्चाका फल हो एकमात्र पावन।
 नित्य निरखती रहूँ रूप मैं उनका अतिशय मनभावन॥
 वे न देख पायें पर मुझको, मेरी पूजाको न कभी।
 देख पायँगे वे यदि, होगा भाव-विपर्यय पूर्ण तभी॥
 रह नहिं पायेगा फिर मेरा यह एकाङङ्गी निर्मल भाव।
 फिर तो नये-नये उपजेंगे ’प्रिय’से सुख पानेके चाव॥ 
PadRatnakar 472
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Ram