Monday 7 November 2011

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे

५१७
(राग बसंत-तीन ताल)
मैं तो सदा बस्तु हूँ उनकी, उनकी ही हूँ भोग्य महान।
 मेरी पीड़ा, मेरे सुखका इसीलिये उनको ही जान॥
 मेरे तनका घाव तथा मेरे मनकी जो व्यथा अपार।
 उसके सारे दुःख-दर्दका वही वहन करते हैं भार॥
 अगर किसी मेरे सद्‌गुणसे होता है उनको आह्लाद।
 तो वह सद्‌गुण भी है दिया उन्हींका अपना कृपा-प्रसाद॥
 जीवन उनका, मति उनकी, मन उनका, तन उनका ही धन।
 वे ही इन्हें सुरक्षित रखें तोड़ें-फोड़ें, मारें घन॥
 जैसे, जब, जो कुछ करवावें और नचावें थनन-थनन।
 कटु बुलवावें, गीत गवावें, कहलावें अति मधुर वचन॥
सुग्गा नहीं जानता कुछ भी अर्थ बोलता-’राधेश्याम’।
 जिसने उसे सिखाया है, उसका ही अर्थ जानना काम॥
 स्वयं मधुर संगीत सिखाकर सुनते, करते यदि यश-गान।
 वह यशगान उन्हींका अपना, करे किस तरह शुक अभिमान॥
 जीवनमें अपना मधु भर वे करें स्वयं उस मधुका पान।
 यों अपने सुखसे ही हों वे सुखी, व्यर्थ दे मुझको मान॥
 पर जब मेरा नहीं कहीं भी कुछ भी रहा पृथक्‌ अस्तित्व।
 तब सुख-मान सभी हैं उनके, क्योंकि सभी उनका कर्तृत्व॥
 मेरा यह ’सबन्ध’ श्यामसे, श्याम बने मेरे आकार।
 तन-मन-वचन, भोग्य-भोक्ता सब, वे ही हैं आधेयाधार॥
 यदि मेरा अपना कुछ भी हो, छिपा कहीं भी हो कुछ भाव।
 आग लगे उसमें इस ही क्षण, हो जाये अत्यन्ताभाव॥
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Ram