Tuesday, 8 November 2011

प्रेम समुद्र की मधुर तरंगे

 ५२०
(तर्ज लावनी-ताल कहरवा)
सखि ! संयोग-वियोग श्यामका मेरे लिये सुखद सब काल।
 पल-पल वर्द्धनशील प्रेममें बाधाको न स्थान भर बाल॥
 जब होता दर्शन है प्रियकी रूप-माधुरीका प्रत्यक्ष।
 जब मैं अपलक उन्हें निरखती हूँ मुसकाते मधुर समक्ष॥
 जब उनका आलिङङ्गन कर मैं पाती हूँ मन परमानन्द।
 तब माना जाता है वह शुचितम सुखमय संयोग अमन्द॥
 जब मैं देख न पाती प्रियको लगता चले गये वे दूर।
 व्याकुल हो अधीर हो उठता चिा दुःखसे हो भरपूर॥
 यद्यपि विरहानलकी ज्वाला होती अति संतापिनि घोर।
 लपटें अमित निकलतीं उससे विविध भाँतिकी नित सब ओर॥
 पर उन ज्वाला-लपटोंमें सुस्पर्श सुशीतल सुधा अपार।
 सदा निकलती रहती, करती शुचि शीतलताका विस्तार॥
 अगणित शारदीय शशधरका सुधा-सुवर्षी ज्योत्स्ना-जाल।
 कर सकता न कदापि सदृशता उस शीतलताकी तत्काल॥
 हो जाती रति और तीव्रतम, बढ़ जाता स्मृति-सुख-सभार।
 मनोवृति हो जाती प्रियमय; बढ़ जाता आनन्द अपार॥
 बाह्य भोग-विरहित जीवनमें होता तुरत आन्तरिक योग।
 विप्रलभमें अतुलनीय हो जाता प्रकट दिव्य संयोग॥
 अन्तर्ज्वाला बुझती, बहने लगती अमित अमृत-रस-धार।
 क्रन्दन हो उठता सुख-रस-सागर, न दीखता आर, न पार॥
 सदा चाहती सखि ! मेरा यह बढ़ता रहे दिव्य क्रन्दन।
 करते रहें सुशीतल अन्तर आ-‌आकर प्रिय नँद-नन्दन॥
 मैं उनमें, वे मुझमें रहते सदा बसे, वास्तविक अभिन्न।
 दो रूपोंमें लीला करते, पर न कभी होते विच्छिन्न॥
 सखि ! जो नहीं जानते पावन प्रेमदेवका रूप-महव।
 काम-कलुष-मन देख न पाते वे वियोगमें सुमिलन-तव॥
 विषयासक्त देह-सुख-कातर कभी न पाते यह आनन्द।
 देह-वियोग उन्हें करता ही रहता नित्य दग्ध स्वच्छन्द॥
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Ram