माघ कृष्ण सप्तमी, मकरसंक्रान्ति, वि.सं.-२०६८, रविवार
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नाम-जपसे जो भी ऊँची-से-ऊँची स्थिति अन्य किसी साधनसे प्राप्त हो सकती है, वह प्राप्त हो जाती है - यह मेरा विश्वास है!
साधाककी वृत्ति उत्तरोत्तर भगवान् के नाम-रूप -गुण-चिन्तनमें ही लगती जाय! आरम्भमें वृत्ति दूसरी और जाती है; पर उसमें यह सावधानी रखनी चाहिए कि वह या तो उधर जाय ही नहीं और यदि जाय तो भगवान् कि सेवाकी भावनासे ही! भगवान् की सेवाकी भावनाके अतिरिक्त दुसरे किसी भी भावसे वृत्तिका जाना निचे स्तरका है!
मन वृत्तियोंका समूह है! वृत्ति जब एक विषयमें जाकर उसके रूपकी हो जाती है, तब उसको 'ध्यान 'कहते हैं !
शरीरका आराम, नामका नाम और जीभका स्वाद-साधकके लिये ये तीन बड़े विघ्न हैं!
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