माघ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, रविवार
गत ब्लॉग से आगे...
सेवा वह उत्तम होती है, जिसमें सेवकका नामतक सेव्यका ज्ञात न हो सके!
अभिमानका स्वभाव है -- अपमान करना! अभिमानीसे अपमान किये बिना नहीं रहा जाता -- चाहे जिस क्षेत्रमें देख लिया जाय!
जिस प्रकारके वातावरणका हम सेवन करेंगे मनसे, शरीरसे, वाणीसे -- वैसा ही बननेकी हमारी इच्छा होगी! संगसे वृत्ति, वृत्तिसे क्रिया और क्रियासे स्वरुप बनता है!
आज हम धर्मके नामसे लजाते है! भगवान् को माननेवाले भी समाजमें, सबके सामने अपनेको भगवान् को माननेवाला कहनेमें लज्जा अनुभव करते हैं!
साधककी यह वृत्ति रहती है कि वह भोगियोंसे सर्वथा उलटा चलता है! भोगी साधककी वृत्तिको समझते नहीं और वे उसे भ्रमित मानते हैं; पर साधक उनकी इस मान्यतासे उद्वेग नहीं करता, वह अन्तरमें प्रसन्न होता है!
साधक और भोगीके दृष्टिकोणमें बड़ा अन्तर होता है! भोगी भोगोंमें ही जागता-सोता है और साधक भोगोंके त्यागमें ही जागता-सोता है!
साधकका यह स्वरुप है कि वह भोगोंसे स्वाभाविक अपनी चित्तवृत्तिको हटाये!
भोगी जिन चीजोंको चाहता है तथा ग्रहण करता है -- सुखके लिये, साधक उन चीजोंके ग्रहणसे घबराता है! उसे उन चीजोंके ग्रहणमें दुःख अनुभव होता है! भोगीको मान अमृतके समान लगता है और साधकको मान विषके समान! भोगीको प्रशंशा बड़ी सुखकर प्रतीत होती है और साधकको प्रशंशा अग्निके सदृश!
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