जगतमें धनविषयक मान्यता पृथक -पृथक है -- किसीका धन विद्या है, किसका धन बुद्धि है, किसीका धन विषय हैं, किसका सम्पत्ति, किसीका धन सोना, किसीका धन परलौकिक सुख! पर सर्वस्व-समर्पण- मयी श्रीराधाके जीवनका धन क्या है -- श्रीकृष्ण!
जहाँ प्रेमका प्रारम्भ होता है, वहीं त्यागकी पराकाष्ठा होती है! त्याग जहाँ पूर्णताको प्राप्त हो जाता है, पहुँच जाता है, वहाँसे भगवत्प्रेमका आरम्भ होता है!
भगवत्प्रेमी सर्वदा, सर्वथा मुक्त होते हैं, मायका राज्य उनके समीप नहीं जा पाता! वह तो दुसरे ही विलीन हो जाता है! जैसे पौ फटना आरम्भ होते ही अन्धकार मरने लगता है, उसी प्रकार प्रेम - सूर्यके उदयकी तो बात ही क्या, प्रेमके उषः कालमें ही मायाका अन्धकार सारित हो जाता है, मिट जाता है, मर जाता है!
भगवान् की मधुर लिलामें उनका ऐश्वर्य छिपा रहता है, क्रियाशील नहीं होता! जिन भगवान् के भयसे भय काँपता है, जिनके भयसे काल, यमराज आदि अपने- अपने कर्तव्यमें संलग्न हैं, वे ही श्रीकृष्ण वात्सल्यकी मूर्ति श्रीयशोदा मैयाकी डाँटसे भयभीत हो जाते हैं!
भगवान् श्रीकृष्ण अपने स्वरुप, लीला आदिसे माधुर्यका इतना प्रसार करते हैं कि सबका चित्त उनकी और खींचता चलता है! उनकी आकर्षण -लीला निरंतर चलती रहती है!
मधुर लीलामें ऐश्वर्य आता है तो वह सेवा करनेके लिये; छिपकर माधुर्यको कम करने या हटानेके लिये नहीं!
प्रेमिमें जब प्रियतम भगवान् से मिलनकी इच्छा जगती है, तब वह मार्गकी कठिनाइयोंकी और दृष्टि नहीं डालता! बस, मिलनकी त्वरामें वह चल पड़ता है! फिर चाहे वह मार्गकी गर्मीसे जलकर भस्म क्यों न हो जाय, उसकी उसे कुछ परवा नहीं! वह प्रियतमसे मिले बिना रह नहीं सकता! एक कथा आती है -- भगवान् श्रीश्यामसुन्दर पहाड़पर सघन छायामें जाकर बैठ गये! पहाड़पर जानेका रास्ता पथरीला, सीधी चढ़ाई, मार्गमें एक भी पेड़ नहीं और मध्याह्नका समय! एक सखिको प्रियतमके समीप जाना है! वह पहाड़पर चढ़ने लगी! देखनेवालोंने उसे रोका -- 'इतनी कड़ी धुपमें पहाड़पर कैसे चढोगी, झुलस जाओगी' पर उसने किसीकी एक बात भी नहीं सुनी! तप्त पत्थरोंपर जब उसके चरण टिकते थे, तब उसे अनुभव होता कि कोई शीतल गद्दी बिछी हुई है और ऊपर कोई शीतल छाया करता चला जा रहा है! प्रत्येक चरण उसे प्रियतमके निकट अनुभव करा रहा था; बस, इसी हेतुसे उसे ऐसा सुखद अनुभव हो रहा था! यह है प्रेमकी विलक्षणता!
गोपी -प्रेममें राग्का अभाव नहीं है, परन्तु वह राग सब जगहसे सिमट कर, भुक्ति और मुक्तिके दुर्गम प्रलोभन व् पर्वतोंको लाँघकर केवल श्रीकृष्णमें अर्पण हो गया है! इहलोक और परलोकमें गोपियाँ श्रीकृष्णके सिवा अन्य किसीको भी नहीं जानतीं !
जिनको भगवत्प्रेमकी प्राप्ति करनी है उनको अखंड भजनका अभ्यास करना चाहिये! जो मनुष्य भजन बिना मुक्त और भगवत्प्रेमकी प्राप्ति चाहता है वह भूलता है! विषयसे मन हटाकर यदि भगवान् में न लगाया जाय तो वह वापस दौड़कर वहीं चला जायगा!
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