हमारी भोगोंमें सुखकी आस्था इतनी दृढ़मूल हो रही है की वैराग्यके शब्दोंसे वह दूर नहीं होती! किसी महान विपत्तिका प्रहार तथा भगवान् अथवा उनके किसी प्रेमिजनकी कृपा ही इस आस्थाको दूर कर सकते हैं!
शरणागत वही हो पाता है, जो दीन है! जिसे अपनी बुद्धि, सामर्थ्य, योग्यताका अभिमान है, वह किसीके शरण क्यों होना चाहेगा! जब अपना सारा बल, बलोंकी आशा-भरोसा टूट जाते हैं, तब वह भगवान् की और ताकता है और उनका आश्रय चाहता है!
शरणागतमें दो चीजें अनिवार्यरूपसे आती हैं -- निर्भयता एवं निशिचन्तता ! जबतक भय एवं
चिंता बने हैं, तबतक न तो अपने दैन्यपर विश्वास हुआ है और न भगवान् की शरणागत- वत्सलतापर! बिना इन दोनों चीजोंपर विश्वास हुए काम बनना असम्भव है!
भगवान् की कृपा दोनोंकी सम्पत्ति है! हम दीन हो जाय तो भगवत्कृपापर हमारा स्वाभाविक अधिकार हो जाय!
भजन-साधन करना चाहिये, पर इनका अभिमान मनमें न जगे, इस बातकी सावधानी रखनी चाहिये! भजन-साधनके होनेमें भगवान् की कृपाको ही हेतु माने! भगवान् की कृपाका निरंतर स्मरण रहे और अपने पुरुषार्थकी विस्मृति; बस, काम बन जाता है!
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