चैत्र कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, सोमवार
प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे....
क्या अपनी माँको भी कोई भूल सकता है? मेरा वही इकलौता लाल है! जब वह मुझसे हठ करता था, किसी बातके लिये मुझसे अड़ जाता था तो बिना वह काम कराये मानता ही नहीं था! वहाँ किसके सामने हठ करता होगा, मेरी ही भाँती कौन उसका दुलार करता होगा? कौन उसकी जिद्दको पूरी करता होगा? मेरा नन्हा व्रजका सर्वस्व है! कुलका दीपक है! उसे खिला-पिलाकर मैंने बहुत -से दिन पलके समान बिता दिये हैं! उस दिनकी बात तुमने भी सुनी होगी!
मैं दही मथ रही थी, मैं तन्मय होकर दही मथनेमें लगी थी और ऐसा सोच रही थी की मेरा कन्हैया अभी सो रहा है! एकाएक वह आया और पीछेसे उसने मेरी आँखें बंद कर लीं! मैं उसके कोमल करोंका मधुर स्पर्श पाकर आनंदके मारे सिहर उठी! मैंने धीरेसे अपनी बाँहोंमें लपेटकर उसे अपनी गोदमें ले लिया और दूध पिलाने लगी! कभी-कभी वह दूध पीना छोड़कर मेरी और देखता, कितना सुन्दर, कितना कोमल, मरकतमणि -सा चिक्कन उसका कपोल है! लाल-लाल ओठोंमेंसे सफ़ेद-सफ़ेद दंतुलियाँ कितनी सुन्दर लग रही थीं! मैं मुग्ध होकर दिग्धके समान स्निग्ध उसके मुखड़ेको देखती रहती और वह फिर दूध पिने लगता! उद्धव! मुझे वह दिन नहीं भूलता! उस दिन मैंने अपने मोहनको उख्हलसे बाँध दिया था,क्यों? एक छोटे-से अपराधपर! उसने दूधके बर्तन फोड़ दिए थे, मक्खन वानरोंको खिला दिया था! उस बात की याद करके मेरा कलेजा अब भी काँप उठता है! क्या मैं दूध और मक्खनको कन्हैयासे अधिक चाहती हूँ! नहीं, उद्धव! यह बात स्वप्नमें भी नहीं है! आज भी मेरे पास दही है, दूध है, मक्खन है परन्तु मेरे ह्रदयका टुकड़ा, मेरी आँखोंका ध्रुवतारा, अंधेका सहारा मेरा कन्हैया मेरे पास नहीं है! उसके न होनेसे अब यह सब रहकर मुझे जलाते हैं! देखो, यह वहीं आँगन है, वही दरवाजा है, वही घर है और वही गलियाँ हैं! ये सब मोहनके बिना मुझे काटने दौड़ते हैं! मेरी आँखें कृष्णको ढूँढती हुई इनपर पड़ती हैं परन्तु उसे न देखकर ये लौट आती हैं और मनमें यह बात आती है कि यदि ये आँखें न होतीं तो अच्छा होता !
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