चैत्र कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार
प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे...
इसी समय यमुनामें स्नान करके आते हुए उद्धव दिख पड़े! उद्धवको देखकर उन्हें और भी आश्चर्य हुआ! वैसा ही शरीर, वैसी ही बाँहें, वैसी ही कमलके समान नेत्र, गलेमें कमलकी माला और पीताम्बर धारण किये हुए! मुखपर वैसी ही प्रसन्नता खेल रही थी! परन्तु ये श्रीकृष्ण नहीं थे! ये दर्शनीय पुरुष कौन हैं, कहाँसे आये और श्रीकृष्ण के समान ही इन्होनें वेष-भूषा क्यों धारण कर रखी है? हो-न-हो ये उन्हींके अनुचर है! उन्हींके सहचर हैं! उन्होंनेही इन्हें भेजा होगा! तब क्या वे हमारा स्मरण करते हैं? जैसे उनके लिए हम छटपटाती रहती हैं, क्या वैसे ही हमारे लिये वे छटपटाते रहते हैं? हो सकता है, छटपटाते हों! परन्तु नहीं, तब क्या वे दो दिनके लिये आ नहीं सकते थे? फिर इन्हें भेजा क्यों हैं? माता-पिताकी सांत्वनाके लिये! अच्छी बात है! पर क्या केवल बातोंसे ही उनका ह्रदय शांत हो जायगा? उन्हें आश्वासन मिल जायगा? यह असंभव है! शायद हमारे लिये भी कुछ सन्देश कहला भेजा हो! न भी कहलाया हो तो क्या,ये अनुचर तो हैं न! इनसे बात करनेपर उनकी कोई बात सुननेको मिलेगी! चलो हम सब इनके पास चलें! अबतक उद्धव पास आ गए थे!
गोपियोंने श्रीकृष्णके सदृश समझकर ही उद्धवका सत्कार किया! एकांतमें ले जाकर उन्होंने पूछा -'उद्धव! तुम तो श्रीकृष्णके प्रेमी अन्तरंग सखा हो! क्या उनके ह्रदयकी कुछ बात कह सकते हो? उन्होंने केवल नन्द-यशोदाके लिये ही तुम्हें भेजा होगा, अन्यथा व्रजमें उनके स्मरण करनेकी और कौन-सी वस्तु है? क्या उन्होंने हमें सचमुच छोड़ दिया? अब वे यहाँ न आवेंगे? परन्तु यह कैसे हो सकता हैं? वे आवेंगे, अवश्य आवेंगे! उद्धव! हमारे ह्रदय की क्या दशा है! हमारी आत्मा कितनी पीड़ित हो रही है, इसे कोई क्या जान सकता हैं? क्या इस वेदनाका कहीं अंत भी हैं? हमें तो नहीं दीखता! हम जितना उपाय करती हैं, उतना ही अधिक यह बढती जाती है! किससे कहें, कहनेसे लाभ ही क्या है?
'उद्धव! जिस दिनसे हमने उनके सौन्दर्यका वर्णन सुना था, उनकी रूपमाधुरी देखि थी, उनकी मधुर वंसीध्वनि सुनी थी उसी दिनसे और वास्तवमें तो उसके पहले ही हम उनके हाथो बिक गयीं! उन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवनसे, मंद-मंद मुस्कानसे, अनुग्रहभरी भौहोंके इशारेसे हमें स्वीकार कर लिया! वे स्वीकार न करते तो भी हम उनकी ही थीं, उनकी ही रहतीं!
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