फल्गुन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार
प्रेमी भक्त उद्धव:.........गत ब्लॉग से आगे....
'उद्धव! व्रजका एक-एक स्थान, वहाँका एक-एक वृक्ष, एक -एक लता मुझे स्मरण आ रही है, मैं उन्हें भूल नहीं रहा हूँ! वहाँके सारस, हंस, मयूर, कोकिल सभी मुझे याद आ रहे हैं! वहाँकी वे हरिण और हरिणीयाँ, जो मेरे पास आकर मेरा शरीर खुजलाती थीं, मेरे ह्रदयमें वैसी ही चेष्टा करती हुई दीख रही हैं! वहाँके भौरोंकी गुंजार अब भी मेरे कानोंको भर रही है! वहाँके पक्षियोंका कलरव अब भी मेरे मनको मोहित कर रहा है! उद्धव! तुम जाओ, अब तनिक भी विलम्ब मत करो!'
सम्भव है, गोपियोंके प्रेमका वर्णन सुनकर उद्धवके मनमें यह अभिलाषा रही हो की मैं व्रजमें जाकर उनका प्रेम देखूँ! अथवा शायद वे ज्ञानमें ही डूबते रहे हों, भगवान् ने प्रेमरसके आस्वादनके लिये उन्हें व्रजमें भेजा हो; कुछ भी हो, भगवान् ने उन्हें व्रजमें भेजा और उन्होंने अविलम्ब आज्ञाका पालन किया! उद्धव भगवान् का सन्देश लेकर रथपर सवार हुए और संध्या होते-होते वे व्रजकी सीमामें पहुँच गए! वहाँकी हरी-हरी वनपंक्तियाँ सुर्यकी लाल-लाल किरणोंसे अनुरंजित हो रही थीं, मानों व्रजभुमिने उद्धवके स्वागतके लिये सहस्त्र -सहस्त्र लाल पताकाएँ फहरा दी हों! उद्धवका रथ वृन्दावनकी और बढ़ रहा था!
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