प्रेमी भक्त उद्धव: ..... गत ब्लॉग से आगे....
आह! श्रुतियाँ जिनके चरण-चिह्नोंकी खोजमें ही लगी हैं, ये गोपियाँ उन्हें पाकर, उनसे एक होकर उनके प्रेममें तन्मय हो गयी हैं! क्यों न हो, स्वजन और आर्यपथका त्याग करके श्रीकृष्णके चरणोंको अपना लेना आसन थोडें ही है! लक्ष्मी जिनकी अर्चना करती हैं, आप्तकाम आत्माराम जिनका ध्यान करते हैं, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमल अपने हृदयपर रखकर इन्होंने हृदयकी जलन शांत कि है! मैं तो इनकी चरणधूलिका भी अधिकारी नहीं हूँ! मैं चरणधूलिकी ही वंदना करता हूँ!' उद्धव उनकी चरणधूलिमें लोटने लगते! दो दिनके लिए आये थे, महीनों बीत गए!
मथुरा जानेके दिन उद्धवके सिरपर हाथ रखकर राधाने आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो! तुम्हारा सर्वदा कल्याण हो! भगवान् से तुम्हें परमज्ञान प्राप्त हो और तुम सर्वदा भगवान् के परम प्रेमपात्र रहो! सर्वश्रेष्ट कर्म उन्हें प्रसन्न करनेवाला कर्म है! सर्वश्रेष्ट जीवन उन्हें समर्पित जीवन है! उसी व्रत, ज्ञान और तपस्याकी सफलता है जो उनके उद्देश्यसे है! उद्धव! वही पराप्तर परीपूर्णतम ब्रह्मा हैं! श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं, ज्योतिः स्वरुप हैं! तुम उन्हीं परमान्दस्वरुप नन्दनंदन की सेवा करो! सारे उपदेशोंकी सफलता इसीमें है! उद्धवको ऐसा अनुभव हुआ, मानों मैंने सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया! वे अपना वस्त्र गलेमें बाँधकर राधाके चरणोंसे लिपट गये! शरीर पुलकित, आँखोंमें आँसू और राधाके वियोग्से कातर होकर जोर-जोरसे रोना! बस यही उद्धवकी दशा थी, वे वहाँसे जाना ही नहीं चाहते थे! गोपियोंने बहुत समझाया, राधाने श्रीकृष्णके लिये बाँसुरी और बहुत-से उपहार दिये तथा कहा कि जाकर तुम यही प्रयत्न करना कि श्रीकृष्ण यहाँ आवें, मैं उन्हें देख सकूँ! राधाकी अनुमति प्राप्त करके उद्धव नन्दबाबाके पास गये!
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