Thursday, 5 April 2012


प्रेमी भक्त उद्धव: ...... गत ब्लॉग से आगे.......


चैत्र शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार
मैं किससे कहूँ, मेरी मानसिक पिडाका किसे विश्वास होगा? मेरे-जैसी अभागिनी, मेरे- जैसी दुखिनी स्त्री न हुई और न होनेकी सम्भावना है! मैं कल्पवृक्षको पाकर भी ठगी गयी! दैवने मुझे ठग लिया! उन्हें देखकर मेरा जीवन सफल हो गया था, मेरा हृदय और आँखें स्निग्ध हो गयी थीं! उनके नामकी मधुर ध्वनि सुनकर मेरे प्राण पुलकित हो उठते हैं! उनकी मधुस्मृतिसे आत्मा तर हो जाती है! मैंने उनके कर-कमलोंका स्पर्श अनुभव किया है! मैं उनकी छत्रछायामें रही हूँ! मैं क्या पाकर उन्हें भूल सकती हूँ? ऐसी कोई वास्तु नहीं, ऐसा कोई ज्ञान नहीं, ऐसा कोई शास्त्र नहीं, ऐसा कोई संत नहीं तथा ऐसा कोई देवता नहीं जिससे मैं श्रीकृष्णको भूल सकूँ! स्थितिकी गति संभव है परन्तु जहाँ बिना मार्गके ही चलना है, उसे गति कैसे कह सकते हैं? यह शून्यकी सेज है!' राधिका रोने लगीं, उद्धव रोने लगे, गोपियाँ रोने लगीं, वहाँके पशु-पक्षी, वृक्ष-लताएँ और जड़-चेतन सब-के-सब रोने लगे! करुणाका, प्रेमका अनन्त समुद्र उमड़ पड़ा! 


उद्धव बहुत दिनोंतक व्रजमें रहे थे! वे राधासे अनेकों प्रसन्न करते और प्रेमका रहस्यज्ञान प्राप्त करते, ग्वालोंके साथ वनोंमें घूमते, नन्द-यशोदाके साथ श्रीकृष्णलीलाका कीर्तन और श्रवण करते, गौओंके साथ खेलते, वृक्षोंका आलिंगन करते और लताओंको देखते ही रह जाते! उनका रोम - रोम प्रेममय हो गया, वे ग्वाले हो गये! पता नहीं परन्तु पता है भी की उनका हृदय गोपिभावमाय हो गया! वे वन-वनमें गाते हुए विचरने लगे! उनके हृदयसे यह संगीत निकलने लगा- ' केवल गोपियोंका जन्म ही सार्थक है! यही वास्तवमें श्रीकृष्णकी अपनी हो सकी हैं! ब्राह्मण होनेसे क्या हुआ, जब श्रीकृष्णमें प्रेम नहीं! बड़े-बड़े मुनि जिसकी लालसा करते रहते हैं, वह इन गोपियोंको प्राप्त हो गया! कहाँ ये वनमें रहनेवाली गाँवकी गवाँर ग्वालिनें और कहाँ श्रीकृष्णमें इनका अनन्त प्रेम! परन्तु इससे क्या हुआ, जानें या न जानें, ज्ञान हो या न हो, श्रीकृष्णसे प्रेम होना चाहिये! अनजानमें भी अमृत पि लिया जाय तो लाभ होता ही है! बिना जाने भी  श्रीकृष्णसे प्रेम हो जाय तो वे अपनाते ही हैं! देवपत्नियोंको, इन्दिरा लक्ष्मीको जो प्रसाद नहीं प्राप्त हुआ वह इन गोपियोंको प्राप्त हुआ है! ये श्रीकृष्णके शरीरका स्पर्श प्राप्त करके कृतार्थ हो गयी हैं! मैं अब वृन्दावनमें ही रहू! मनुष्य न सही, पशु-पक्षी ही सही, वृक्ष ही सही और नहीं तो एक तिनका ही सही! इनके चरणोंकी धूलि तो प्राप्त होगी न! 


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Ram