वर्षा ऋतु का आगमन हुआ है l इस ऋतु में सभी प्रकार के प्राणियों की बढती हो जाती है l उस समय सूर्य और चन्द्रमा पर बार-बार प्रकाशमय मण्डल बैठने लगे l इससे आकाश की ऐसी शोभा होती, जैसे ब्रह्मस्वरूप होने पर भी गुणों से ढक जाने पर जीव की होती है l जैसे दयालु पुरुष जब देखते हैं कि प्रजा बहुत पीड़ित हो रही है, तब वे दयापरवश होकर अपने जीवन-प्राण तक निछावर कर देते हैं - वैसे ही बिजली कि चमक से शोभायमान घनघोर बादल तेज हवा कि प्रेरणा से प्राणियों के कल्याण के लिए अपने जीवंस्वरूप जल को बरसाने लगे l जेठ-आषाढ़ कि गर्मी से पृथ्वी सूख गयी थी l अब वर्षा के जल से सिंचकर वह फिर हरी-भरी हो गयी - जैसे सकामभाव से तपस्या करते समय पहले तो शरीर दुर्बल हो जाता है, परन्तु जब उसका फल मिलता है, तब हृष्ट-पुष्ट हो जाता है l पृथ्वी पर कहीं-कहीं हरी-हरी घास की हरियाली थी, तो कहीं-कहीं बीरबहूटियों की लालिमा और कहीं-कहीं बरसाती छत्तों के कारण वह सफ़ेद मालूम देती थी l उन्हें देखकर किसान तो मारे आनंद के फूले न समाते थे, परन्तु सब कुछ प्रारब्ध के अधीन है - यह बात न जाननेवाले धनियों के चित्त में बड़ी जलन हो रही थी कि अब हम इन्हें अपने पंजे में कैसे रख सकेंगे l
मूसलाधार वर्षा की चोट खाते रहने पर भी पर्वतों को कोई व्यथा नहीं होती थी - जैसे दुखों की भरमार होने पर भी उन पुरुषों को किसी प्रकार की व्यथा नहीं होती, जिन्होंने अपना चित्त भगवान् को ही समर्पित कर रखा है l यद्यपि बादल बड़े लोकोपकारी हैं, फिर भी बिजलियाँ उनमें स्थिर नहीं रहतीं - ठीक वैसे ही, जैसे चपल अनुरागवाली कामिनी स्त्रियाँ गुणी पुरुषों के पास भी स्थिरभाव से नहीं रहतीं l यद्यपि चंद्रमा की उज्जवल चांदनी से बादलों का पता चलता था, फिर भी उन बादलों ने ही चंद्रमा को ढककर शोभाहीन भी बना दिया था - ठीक वैसे ही, जैसे पुरुष के आभास से आभासित होनेवाला अहंकार ही उसे ढककर प्रकाशित नहीं होने देता l बादलों के शुभागमन से मोरों का रोम-रोम खिल रहा था - ठीक वैसे ही, जैसे गृहस्थी के जंजाल में फंसे हुए लोग, जो अधिकतर तीनों तापों से जलते और घबराते रहते हैं, भगवान् के भक्तों के शुभागमन से आनंदमग्न हो जाते हैं l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)
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