Thursday, 14 June 2012

रासलीला का आरम्भ






अब आगे...........
              भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - महाभाग्यवती गोपियों ! तुम्हारा स्वागत है l  ब्रज में तो सब कुशल-मंगल है न ? कहो इस समय यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ गयी l गोपियों रात का समय है , यह स्वयं ही बड़ा भयावना होता  है और इसमें बड़े-बड़े भयावने जीव-जन्तु इधर- उधर घूमते रहते हैं l  अत: तुम सब तुरंत ब्रज में लौट जाओ l तुमलोगों ने रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे हुए इस वन की शोभा को देखा l पूर्ण चन्द्रमा की कोमल रश्मियों से यह रंग हुआ है , मानो उन्होंने अपने हाथों चित्रकारी की हो l परन्तु अब तो तुमलोगों ने यह सब कुछ देख लिया l अब देर मत करो, शीघ्र-से-शीघ्र ब्रज में लौट जाओ l यदि मेरे प्रेम से परवश होकर तुमलोग यहाँ आई हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं हुई, यह तो तुम्हारे योग्य ही है l गोपियों ! मेरी लीला और गुणों के श्रवण से , रूप के दर्शन से, उन सबके कीर्तन और ध्यान से मेरे प्रति जैसे अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है l वैसे प्रेमकी प्राप्ति पास रहने से नहीं होती l इसलिए तुमलोग अभी अपने-अपने घर लौट जाओ l
               भगवान् श्रीकृष्ण का यह अप्रिय भाषण सुनकर गोपियाँ उदास, खिन्न हो गयीं l उनकी आशा टूट गयी l उन्होंने अपने मुँह नीचे की ओर लटका लिए, वे पैर के नखों से धरती कुरेदने लगी l उनका ह्रदय दुःख से इतना भर गया कि वे कुछ बोल न सकीं, चुपचाप  खड़ी रह गयीं l जब उन्होंने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की यह निष्ठुरता से भरी बात सुनी , तब उन्हें बड़ा दुःख लगा l  आँखें रोते-रोते लाल हो गयीं, आंसुओं के मारे रूँध गयीं l
               गोपियों ने कहा  - प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम घाट-घाट व्यापी हो l हमारे ह्रदय की बात जानते हो l  हम सब कुछ छोड़कर केवल तुम्हारे चरणों में ही प्रेम करती हैं l  तुम पर हमारा कोई वश नहीं है l  जैसे आदिपुरुष भगवान् नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तों से प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें स्वीकार कर लो l हमारा त्याग मत करो l तुम्हीं समस्त शरीरधारियों के सुहृद हो , आत्मा हो और परम प्रियतम हो l  हमारे ये पैर तुम्हारे चरणकमलों को छोड़कर एक पग  भी हटने के लिए तैयार नहीं हैं, नहीं हट रहे हैं l  फिर हम ब्रज कैसे जाएँ ?  हे प्रियतम ! हम सच कहती हैं, तुम्हारी विरह-व्यथा की आग से हम अपने-अपने शरीर जला देंगी और ध्यान के द्वारा तुम्हारे चरणकमलों को प्राप्त करेंगी l


श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)            
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Ram