भगवान् सहसा अंतर्धान हो गए l उन्हें न देखकर ब्रजयुवतियों का ह्रदय विरह की ज्वाला से जलने लगा l वे प्रेम की मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयीं और फिर श्रीकृष्ण की विभिन्न चेष्टाओं का अनुकरण करने लगीं l अपने श्रीकृष्ण की चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदि में श्रीकृष्ण की प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयीं l उनके शरीर में भी वही गति-मति, वही भाव-भंगी उत आयीं l वे अपने को सर्वथा भूलकर श्रीकृष्ण स्वरुप हो गयी l और उन्हीं के लीला-विलास का अनुकरण करती हुई 'मैं श्रीकृष्ण ही हूँ' - इस प्रकार कहने लगीं l भगवान् श्रीकृष्ण कहीं दूर थोड़े ही गए थे l वे तो समस्त जड़-चेतन पदार्थों में तथा उनके बाहर भी आकाश के समान एकरस स्थित ही हैं l वे वहीँ थे, उन्हीं में थे, परन्तु उन्हें न देखकर गोपियाँ वनस्पत्तियों से - पेड़ -पोधों से उनका पता पूछने लगीं l
नन्दनन्दन श्यामसुंदर अपनी प्रम्भारी मुस्कान और चित्तवन से हमारा मन चुराकर चले गए हैं l क्या तुमलोगों ने उन्हें देखा है l प्यारी मालती ! मल्लिके !जाती और जूही ! तुमलोगों ने कदाचित हमारे माधव को देखा होगा l क्या वे अपने कोमल करों से स्पर्श करके तुम्हे आनंदित करते हुए इधर से गए हैं ? श्रीकृष्ण के बिना हमारा जीवन सूना हो रहा है l हम बेहोश हो रही हैं l तुम हमें उन्हें पाने का मार्ग बता दो l देखो, देखो, यहाँ कुलपति श्रीकृष्ण की कुन्दकली की माला की मनोहर गंध आ रही है l जो उनकी परम प्रयेसी के अंग-संग से लगे हुए कुछ-कुंकुम से अनुरंजित रहती है l हमारे श्यामसुंदर इधर से विचरते हुए अवश्य गए होंगे l
इस प्रकार मतवाली गोपियाँ प्रलाप करती हुई भगवान् श्रीकृष्ण को ढूंढते-ढूंढते कातर हो रही थीं l अब और भी गाढ़ आवेश हो जाने के कारण वे भगवन्मय होकर भगवान् की विभिन्न लीलाओं का अनुकरण करने लगीं l कोई गोपी पाँव घसीट-घसीटकर घुटनों के बल बकैयाँ चलने लगीं और उस समय उसके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोलने लगे l जैसे श्रीकृष्ण वन में करते थे, वैसे ही एक गोपी बाँसुरी बजा-बजाकर दूर गए हुए पशुओं को बुलाने का खेल खेलने लगी l एक गोपी , दूसरी गोपियों से कहने लगती - 'मित्रो ! मैं श्रीकृष्ण हूँ l तुमलोग मेरी यह मनोहर चाल देखो' l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर(३०)
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