अब आगे........
अब की बार ग्वालबाल पत्निशाला में गए l उन्होंने द्विजपत्नियों को प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यह बात कही - 'आप विप्रपतिनियों को हम नमस्कार करते हैं l आप कृपा करके हमारी बात सुने l भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ से थोड़ी ही दूर पर आये हुए हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है l इस समय उन्हें और उनके साथियों को भूख लगी है आप उनके लिए कुछ भोजन दे दें l श्रीकृष्ण के आनेकी बात सुनते ही वे उतावली हो गयीं l उन्होंने बर्तनों में अत्यंत स्वादिष्ट और हितकर भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, और चोष्य - चारों प्रकार की भोजन सामग्री ले ली तथा भाई-बंधू, पति-पुत्रों के रोकते रहने से भी अपने प्रियतम भगवान् श्रीकृष्ण के पास जाने के लिए घर से निकल पड़ीं - ठीक वैसे ही जैसे नदियाँ समुद्र के लिए l ब्राह्मणपत्नियों ने जाकर देखा कि अशोक-वन में ग्वालबालों से घिरे हुए बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण इधर-उधर घूम रहे हैं l गले में वनमाला लटक रही है l मस्तक पर मोरपंख का मुकुट है l एक हाथ अपने सखा ग्वालबाल के कंधे पर रखे हुए हैं और दूसरे हाथसे कमल का फूल नचा रहे हैं l मुखकमल मंद-मंद मुसकानकी रेखा से प्रफुल्लित हो रहा है l अपने मनको उन्ही के प्रेम के रंग में रंग डाला l अब नेत्रों के मार्ग से उन्हें भीतर ले जाकर बहुत देर तक वे मन-ही-मन उनका आलिंगन करती रहीं और इस प्रकार उन्होंने अपने ह्रदय जलन शांत की l
भगवान् सब के ह्रदय की बात जानते हैं, सब की बुद्धियों के साक्षी हैं l भगवान् ने कहा - 'महाभाग्यवती देवियों ! तुम्हारा स्वागत है l आओ बैठो, कहो हम तुम्हारा क्या स्वागत करें ? तुमलोग हमारे दर्शन की इच्छा से यहाँ आई हो, यह तुम्हारे-जैसे प्रेमपूर्ण हृदयवालों के योग्य ही है l प्राण, बुद्धि. मन, शरीर, स्वजन, स्त्री, पुत्र, और धन आदि संसार की सभी वस्तुएं जिस के लिए और जिसकी सन्निधि से प्रिय लगती हैं - उस आत्मा से, परमात्मा से, मुझ श्रीकृष्ण से बढ़कर और कौन प्यारा हो सकता है l परन्तु अब तुमलोग मेरा दर्शन कर चुकीं l अब अपनी यज्ञशाला में लौट जाओ l तुम्हारे पति ब्राह्मण गृहस्थ हैं l वे तुम्हे साथ मिलकर ही अपना यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे' l
ब्राह्मणपत्नियों ने कहा - आपको ऐसे बात नहीं कहनी चाहिए l श्रुतियाँ कहती हैं कि जो एक बार भगवान् को प्राप्त हो जाता है, उसे फिर संसार में नहीं लौटना पड़ता l आप अपनी यह वेदवाणी सत्य कीजिये l स्वामी ! अब हमारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बंधू और स्वजन-सम्बन्धी हमें स्वीकार नहीं करेंगे फिर दूसरों की तो बात ही क्या है l हमें और किसी का सहारा नहीं है l इसलिए अब हमें दूसरों की शरण में न जाना पड़े, ऐसी व्यवस्था कीजिये l
श्रीप्रेम-सुधा-सागर (३०)
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