भजन क्यों नहीं होता ?
यह प्रबल मोह की ही महिमा है की बार बार दुखो का अनुभव करता हुआ भी मनुष्य उन्ही दुखदायी भोगो को चाहता है |
गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है -
ज्यो जुवती अनुभवति प्रसव अति दारुण दुःख उपजे |
हिव अनुकूल बिसारी सूल सठ पुनि खल पतिहि भजे ||
लोलुप भ्रम गृह पसु ज्यु तह सर पढ़ त्रान बजे |
तदपि अधम बिचरत तेहि मार्ग कबहू न मूढ़ लजे ||
'जैसे युवती स्त्री संतान-प्रसव के समय दारुण दुःख का अनुभव करती है,परन्तु वह मुर्ख सारी वेदना को भूलकर पुन्न उसी दुःख के स्थान पति का सेवन करती है | जैसे लालची कुत्ता जहा जाता है वही उसके सर पर जूते पढ़ते है तोह भी वह नीच पुन्न उसी रस्ते भटकता है ,उस मूढ़ को जरा भी लाज नहीं आती |'
बस, यही दशा मोह्ग्रह्स्त मानव की है | बार बार दुःख का अनुभव करने पर भी उन्ही विषयों में सुख खोजता है | इसी मोह के कारण वह भगवान् का भजन नहीं करता |
भगवत कृपा से जब यथार्थ सत्संग का सूर्य उदय होता है,तब मनुष्य के मोह निशा भंग होती है और वह विवेक के मंगल प्रभात का दर्शन प्राप्त करता है | यथार्थ सत्संग वही है जो इसह मोह का नाश करने में समर्थ हो | जिस संग से विषय-विमोह और विषयाशक्ति बढती है वह तो कुसंग ही है | यह मोह की ही महिमा है की अपने को साधू , जीवन्मुक्त, भक्त या महात्मा मानने तथा बतलाने वाले लोग भी विषय कामना करते है और विषयों का महत्त्व मानते है |
सच्चे संत, महात्मा या भक्त तोह वही है जिनका विषय-विमोह या भोग-विभ्रम सर्वथा मिट गया है | जिनकी दृष्टी में सांसारिक विषयों का भगवान् के अतिरिक्त कोई अस्तित्व ही नहीं रहा है और रहा है तोह विनोद या खले के रूप में ही | अथवा उन संत-साधको का सत्संग भी बड़ा लाभदायक है , जिनकी दृष्टी में संसार के भोग विष या मॉल के सदर्श घ्रणित और त्याज्य हो चुके है |
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दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४
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