मान बड़ाई - मीठा विष
मनुष्य जहा सर्व जीवो के अपेक्षा विलक्षण शक्ति सामर्थ्य युक्त है,वह वह एक ऐसी दुर्बर्लता को धारण करता है, जो पशु पक्षी, किट-पतंगों में नहीं है | यह दुर्बलता है - मान बड़ाई की इच्छा , यश कीर्ति की कामना |
यह बड़े बड़े त्यागी कहलाने वालो में भी प्राय: पाई जाती है | इसको लोग दोष की वस्तु नहीं मानते और इतिहास में नाम अमर रहने की वासना रखते है और कामना करते है | यह मीठा विष है , जो अत्यंत मधुर प्रतीत होता है ; परन्तु परिणाम में साधन जीवन की समाप्ति का कारण बन जाता है |
मान बड़ाई किसकी ? शरीर की और नाम की ! जो शरीर और नाम को अपना स्वरुप मानता है और उनकी पूजा-प्रतिष्टा, उनका नाम यश चाहता है , वह नाम रूप में अहं भाव रखने वाला ज्ञानी है या अज्ञानी ?
यह प्रत्यक्ष है की 'शरीर' माता पिता के रज-वीर्य का पिंड है और माता के गर्भ में इसका निर्माण हुआ है | यह आत्मा नहीं है और 'नाम' तोह प्रत्यक्ष कल्पित है | जब यह माता के गर्भ में था,तब तोह यही पता नहीं था के लड़की है या लड़का | प्रसव होने के बाद नामकरण हुआ | वह नाम अच्छा नहीं लगा, दूसरा बदल गया,तीसरा बदल गया | न मालूम कितनी बार परिवर्तन हुआ | ऐसे शरीर ('रूप ') और 'नाम' में अहता कर, उनको आत्मा मन कर उनकी पूजा प्रतिष्ठा की कामना करना प्रत्यक्ष अज्ञान के जयघोषणा है | अपने अज्ञान का साक्षात् परिचय है | परन्तु किससे कहा जाये और कौन कहे ! कूए जो भांग पड़ी है |
बड़े बड़े त्यागी महात्मा अपने जीवन काल में अपनी धातु मूर्ति का निर्माण करवा कर, छायाचित्रों को देकर उनकी पूजा करवाते है; अपने नाम का जप करवाते है | अपने को इश्वर या भगवान् कहाते है और स्वयं कहते जरा भी सकुंचित नहीं होते, वरं इसमें गौरव तथा महत्त्व का अनुभव करते है | मेरी समजह में तोह यह मोह है और इस मोह का सीघ्र भंग होना अति अवश्यक है |
आप लोगो ने जिस अकृत्रिम स्नेह , वात्सल्य , प्रेम, आत्मीयता ,शील और सौजन्य तथा उदारता के साथ हमलोगों के प्रति जो आदर्श वर्ताव किया है और यात्रा ट्रेन के प्रत्येक यात्री को सुख सुविधा देने का जो महान प्रयास किया है, उसके लिए हम सभी आपके कृतग्य है | मैं तोह आपके आदर्श निष्काम तथा विसुध प्रेम को प्राप्त कर कृतार्थ हो गया हु | और आपने सदा के लिए मुझे प्रेम-ऋणी बना दिया है | मेरे पास सब्द नहीं है,जिनके द्वारा में अपने ह्रदय के भाव प्रगट कर सकू | में आपका चिर ऋणी हु | वास्तव में प्रेम का कोई बदला हो ही नहीं सकता | में आपके प्रेम के पवित्र भावना से सदा सर्वदा अपने ह्रदय को पवित्र बनाये रखने चाहता हु | सदा सर्वदा इस सुधा-सीन्चन से ह्रदय को हरा भरा रखना चाहता हु |
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दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४
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