दुसरे वे पापी है, जो परिस्थिती या दुर्बलता के कारण बड़े से बड़ा पापकर्म तोह कर बैठते है,परन्तु वे उस पाप को पाप सम्जहते है , पाप करके पश्चाताप करते है,पाप उनके हृदय में शूल से चुभते है और वे उससे त्राण पाने तथा भविष्य में पापकर्म सर्वथा न बने, इसके लिए सदा चिंतित और सचेस्ट रहते है, ऐसे लोग कही आश्रय , आश्वासन न पाकर अंत में भगवान् को ही परम आश्रय मानकर करुण भाव से उनको पुकारते है |
भगवान् कहते है -
'अत्यंत दुराचारी (पाप कर्मी मनुष्य ) भी यदि मुझ (भगवान्) को ही एकमात्र शरणदाता परम आश्रय मानकर दुसरे किसी का कोई भी आशा भरोश न रख कर (पाप नाश और मेरी भक्ति की प्राप्ति के लिए ) केवल मुझको भजता है, आर्त होकर एकमात्र मुझको ही पुकार उठता है | उसे साधू ही मानना चाहिए; क्युकी उसने एकमात्र मुझ (भगवान् ) को ही परम आश्रय मानने और केवल मुझको ही पुकारने का सम्यक निश्चय कर लिया है | केवल मानने की ही बात नहीं, वह तुरंत ही धर्मात्मा (पापकर्मो से बदलकर धर्म स्वरुप ) बन जाता है और भगवत्प्राप्ति रूप परमशान्ति को प्राप्त होता है | अर्जुन ! तुम यह सत्य समजो के मुझको इश प्रकार भजने वाले भक्त का कभी नाश (अध् पात) नहीं होता |'
इस दोनों प्रकार की पापिओ में यही अंतर है की पहला पाप को पाप न मानकर गौरव तथा अभिमान की वस्तु मानता है, वह काम-क्रोध-लोभादी रूप असुरभाव को ही परम आश्रय सम्जह्कर उसी के परायण रहता है तथा नीच कर्मो की सिद्धि में ही सफलता का अनुभव करता है और दूसरा पापी पाप को पाप मानकर उनसे छुटना चाहता है और शरणागत वत्सल भगवान् को ही एकमात्र परम आश्रय मानकर परम श्रद्धा के साथ उसका भजन करना चाहता है | इस्सी से यह भजन कर सकता है और सीघ्र ही पापमुक्त होकर भगवान् को प्राप्त कर लेता है |
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दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४
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