जन्माष्टमी की सभी को हार्दिक शुभकामनायें |
साधकों को धनमें ममत्व नहीं रखना चाहिए | धनमें बड़ी मादकता होती है | धनि पुरुषका वासत्विक विनयी होना कठिन हो जाता है | धनके के साथ ही कई दोष और आ जाते हैं, जो साधन में प्रतिबंधक स्वरुप होते हैं | धन की प्राप्ति में लोभ बढ़ता हैं और अभाव में शोक | धनकी चिंता तो भगवद चिंतन में बड़ा ही विघ्न पैदा करनेवाली होती है | जो कुछ प्राप्त हो उसीमें संतोष करो, अधिक आवश्यकता हो तो न्याय और सत्य का पालन करते हुए प्रयत्न करो | धन पास हो तो उसे भगवान् का समझो और यथोचित रूपसे उसे भगवान् के काम में लगाओ | यही सदुपयोग है | प्रमाद और परपीडन में धन का कभी उपयोग ना करो | धनको महत्व मत दो तथा धन का अभिमान मनमें मत आने दो | धनका लोभ ना बढाओ | याद रखो – धनका लोभी मनुष्य कभी परमार्थ साधन में अग्रसर नहीं हो सकता |
साधकों को स्त्री संगसे सदा बचना चाहिए | यहाँ बहादुरी दिखाने की जरूरत नहीं है | जो लोग स्त्रियोंसे मिलते-जुलते हैं, स्त्रियोंमें उपदेश देते हैं, स्त्रियों की सभाओंमें जाते हैं, स्त्रियोंके साथ रहते हैं, वे यदि अपने ह्रदय की सच्ची स्थिति देखना चाहें और जरा गहराई की नज़र से देखें तो उन्हें पता लगेगा की ऊपर से कोई दोष नज़र ना आनेपर भी अंदर एक प्रकार की कालिमा आ गयी है, जो बाहर के शुद्ध विचारों से ढकी हुयी है | एक स्वाभाविक-सा आकर्षण है जो युक्तिवाद के सहारेसे, किसी सद-उद्देश्य के बहानेसे स्त्रियोंकी-युवती स्त्रियों की ओर चित्त को खींच रहा है | यही आकर्षण जब निरंतर के संगके प्रभावसे या अन्य किसी कारणवश बढ़ जाता है, तब साद-उद्देश्य प्रकाश रूपसे सहसा नष्ट हुआ-सा दीखता है और चित्त के क्षेत्र में वासनाओं का नग्न नृत्य आरम्भ हो जाता है | एक निश्चयहीन बुद्धि निर्बल होकर मनपर शासन करने में असमर्थ हो जाती है | फिर बुद्धि की संरक्षकतासे वंचित और वासनाओं से प्रताडित मनको इन्द्रियाँ सहज ही खींच लेती है | मनुष्य का बाह्य पतन हो जाता है | इसी प्रकार स्त्रियों को भी सदा पर-पुरुषों से बचते रहना चाहिए | पुरुष-स्त्री का स्वछंद मिलन कदापि हितकर नहीं है | यह भाव शास्त्र और अनुभाव दोनों से सिद्ध है, फिर जो आत्म-कल्याण के साधनमें लगे हैं, उनको तो विशेषरूप से सावधान रहना चाहिए |
साधकों को मान का मोह छोड़ देना चाहिए | जहां मान-बडाई मिलने की संभावना हो या जिस कार्य से मान-बडाई मिलती हो वहाँ भरसक उस काम से अलग रहो या उसे छिपकर करो, जिससे तुम्हें मान-बडाई ना मिले | मान-बडाई मिले तो उसे कभी मनसे स्वीकार ना करो | मान-बडाईसे जो मनमें आनन्द उत्पन्न होता है वाही मान-बडाई को स्वीकार करना है | उपरसे ही अस्वीकार करना ही अस्वीकार करना नहीं है ! मान-बडाई मीठा-विष है जो साधकके साधन-शरीर को सर्वथा जर्जर कर डालता है | अतएव सदा मान-बडाई से बचो |
भगवान् की पूजा के पुष्प , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ३५९
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