सबपर दया करो, सबके दुखोंको अपना दुःख समझो | सबके सुखी होनेमें ही सुख अनुभव करो, परन्तु ममता और अहंकार से सदा बचे रहो !
शरीर के किसीभी अंगमें सुख-दुःख की प्राप्ति होनेपर जैसे उसका सामान भावसे अनुभव होता है, वैसे ही प्राणिमात्र के सुख-दुःख की प्राप्तिमें समता रखो, अपनेको सृष्टी में मिला दो |
अपने शरीरमें पर-भावना(दूसरे का है, ऐसी भावना) करो, परन्तु दूसरोंमें आत्म-भावना करो, तभी तुम दूसरों के सुख-दुःख में सहभागी बन सकोगे और उनके लिए अपने सर्वस्व का त्याग कर सकोगे|
याद रखो – बदला लेनेकी भावना परायेमें ही होती है, अपनेमें नहीं होती | जब तुम सारे विश्वमें आत्म-भावना कर लोगे तब तुम्हारे अंदर बदला लेने की भावना रहेगी ही नहीं | हाँ, जब किसी अंगमें रोग होकर उसमें सडन पैदा हो जाती और उसके वजह से सारे शरीरमें जहर फैलने की संभावना होती है तब उसके अंदर का सारा दूषित मवाद निकालकर उसे शुद्ध, निरोग और स्वस्थ बनाने के लिए ऑपरेशन की जरूरत होती है, वैसे ही तुम्हें भी कभी-कभी विश्वहित की विशुद्ध कामनासे उसके किसी अंगमें ऑपरेशन करनेकी जरूरत पड़ सकती है | परन्तु इस ऑपरेशन में तुम्हारा वही भाव हो जो अपना अंग कटवाने के समय होता है | अवश्य ही शुद्ध व्यवहार होनेपर वैसी जरूरत भी बहुत ही कम हुआ करती है |
जैसे विषयी पुरुष अपनी आत्माके लिए (वह देह को ही आत्मा मानता है इसलिए कहा जा सकता है की शरीर-सुख के लिए) माता, बंधू, स्त्री, पुत्र, धर्म और इश्वर तकका त्याग कर देता है, वैसे ही तुम विश्वरूप इश्वर और विश्वात्मा की सेवा के लिए आनंदसे अपने शरीर तथा शरीर-सम्बन्धी समस्त सुखोंका सुख पूर्वक त्याग कर दो | विश्वात्मा को ही अपनी आत्मा और विश्वको ही अपनी देह समझो, परन्तु सावधान ! यहाँ भी ममता और अहंकार नहीं आने पावे ! तुम जो कुछ करो वो सच्चे प्रेमसे करो, और वह प्रेम स्वार्थ-प्रेरित ना होकर हेतु-रहित हो, परमात्मासे प्रेरित हो | परमात्मासे प्रेरित विश्वप्रेम ही तुम्हारा एकमात्र ध्येय बन जाय |
भगवान् की पूजा के पुष्प , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ३५९
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