७ भगवन् ! मेरे संकट –दु:खसे किसी भी दु:खी संकटग्रस्त प्राणीका दुःख – संकट दूर होता हो तो मुझे बार बार दुःख –संकट दिए जाये और उन्हें प्रसन्नतापूर्वक वरण करने की शक्ति दी जाय । किसी भी प्राणी की किसी भी प्रकार की सेवा करने का मुझे सौभाग्य और सुअवसर मिल जाय मैं अपने को धन्य समझूँ और तुम्हारे दिये हुए प्रत्येक साधन से तुम्हारी ही सेवा की भावनासे उनकी सेवा करूँ । पर मन में तनिक भी अभिमान न उत्पन्न हो, वरन् यह अनुभूति हो कि तुमने अपनी ही वस्तु स्वीकार करके मुझपर बड़ा अनुग्रह किया ।
८ भगवन् ! तुम्हारे विशुद्ध प्रेम के अतिरिक्त मेरे मन में अन्य किसी वास्तु अथवा स्थिति को प्राप्त करनेकी कभी कामना ही न उत्पन्न हो और मैं तुम्हारे अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु अथवा प्राणी में आसक्त न होऊं ।
९ भगवन् ! मेरे जीवन में केवल तुमको प्रसन्न करनेवाले भाव,विचार और कार्यों का ही समावेश हो | क्षणभर के लिए भी बुद्धि,चित, मन और इन्द्रियों द्वारा अन्य किसी भाव, विचार और क्रिया की सम्भावना ही न रहे ।
१० भगवन् ! मेरा मन नित्य-निरंतर तुम्हारे मधुर मनोहर स्वरुप,लीला, गुण और नाम के ध्यान-चिंतन में ही लगा रहे ।वाणी निरन्तर तुम्हारे नाम-गुणों का गान करती रहे और शरीर से होने वाली प्रत्येक क्रिया द्वारा केवल तुम्हारी ही सेवा हो ।
११ भगवन् ! मैं केवल यन्त्र की भांति काम करता रहूँ ।कहीं भी,किसी भी अवस्था में, किसी भी प्रकार की अहंता, ममता और आसक्ति , न उत्पन्न हो जाय ।
१२ भगवन् ! मेरे जीवन में सारी आभ्यन्तरिक और बाह्य चेष्ठाएँ केवल तुम्हारी संतुष्टि के लिए ही तथा तुम्हारी इच्छा के अनुकूल ही हों ।
प्रार्थना {प्रार्थना-पीयूष} पुस्तक से कोड- 368 – श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार (शेष अगले ब्लॉग में )
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