Thursday, 2 August 2012

दीन दुखियो के प्रति कर्तव्य

दीन दुखियो के प्रति कर्तव्य
भगवान् आर्तिहरण है | वे दीनो की आर्तिहरण करने वाले है | भगवान् दीनबंधु है, दीनो के सहज मित्र है | दीन का अर्थ है - असमर्थ , असक्त, जिसमे कुछ भी करने की शक्ति नहीं , जिसके पास कोई साधन नहीं , जो शक्तिहीन,सामग्री हीन और सर्वथा निर्बल है - ऐसा जो कोई होता है उसके ह्रदय की पुकार स्वाभाविक ही दीनबंधु के लिए होती है | दीन को कौन अपनाये ? संसार में दीनो के साथ सहज, सरल प्रेम करने वाले, उनका समादर करने वाले, उन्हें अपनाने वाले वस्तुत दो ही है - एक भगवान् और दुसरे संत | यह दीन बंधुत्व ,दीन वत्सलता, अकिंचिनता, दीन प्रियता भगवान् और संत में ही है \ यह परम आदर्श गुण है | इसका यदि किसी के जीवन में समावेश हो जाये तोहुसका जीवन धन्य हो जाये | इसमें एक विसेस बात यह है जैसे माता संतान वत्सला होती है और वह अपने मन में कभी भी अहंकार नहीं करती की में संतान का उपकार करती हु, उसका वात्सल्य उसे संतान की सेवा करने करने के लिए बाध्य करता है | इश मातर वात्सल्य पर संतान का सहज अधिकार है | माता की वह वात्सल्यता संतान की सम्पति है | उसकी वात्सल्यता संतान के लिए ही है , नहीं तोह उसकी कोई सार्थकता नहीं | इस प्रकार दीनो के प्रति , अनाथो के प्रति, दुखियो के प्रति, जो संतो की, भगवान् के सहज दयापूर्ण वत्सलता है, वह अनाथो, अनाश्रीतू, दीनो, दुखियो और असहायों के सम्पति है |दीनो के प्रति सहज वात्सल्यता रखने वाले पुरुषो का यह स्वाभाव होता है | यह सहज भाव सदा उनके ह्रदय में रहता है | वे यह नहीं मानते की हम किसी का उपकार कर रहे है | वे नहीं मानते की हम दया करके किसि 'दीन' दया के पात्र को कुछ दे रहे है | वे अपना कुछ मानते ही नहीं | वे सम्जहते है , हमारा कुछ है ही नहीं | जो कुछ है वह सब भगवान् का है | विद्या,बुधि ,बल,धन,सम्पति, जमीन,माकन जो कुछ है ,सारा का सारा भगवान् का है | इसलिए उसका यथा योग्य निरंतर भगवान् के सेवा में , भगवान् के काम में लगते रहना ,यह उनका स्वभाव होता है | अत: उनकी दीन्वत्सलता , किसी दीन का उपकार नहीं , भगवान् की सेवा है |भगवान् की अपनी वस्तु, भगवान् को समर्पण करने का भाव है | इश भाव के विपरीत जो इन सब वस्तुओ का संग्रह करता है , जो उन्हें अपनी वस्तु मानता है , उन पर अपना स्वामित्व , अपना अधिकार मानता है, भगवान् की वस्तु भगवान् को देता नहीं , वह चोर है | भगवान् के चीज पर अपना स्वत्व मानकर जो सब कुछ को अपना मान बैठता है , केवल अपने ही उपयोग में लेने लगता है , वह चोर है, दंड का पात्र है |
*********************************************************************************** दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४ ***********************************************************************************
If You Enjoyed This Post Please Take 5 Seconds To Share It.

0 comments :

Ram