Thursday 23 August 2012

धनवानों का कर्त्तव्य

             भारत में अभी ऐसे बहुत-से पुरुष हैं जो बहुत सुख से खाते-पीते हैं और चाहें तो बहुतों के पेट की ज्वाला मिटा सकते हैं l खाने के पदार्थ भी - अन्न, चारा-घास इत्यादि भी कीमत देने पर काफी परिमाण में मिल सकते हैं l ऐसा होते हुए भी आज लाखों प्राणी अन्न और चारे-दाने बिना मरे जाते हैं, यह बहुत ही खेद की बात है l मैं आपको सच लिख रहा हूँ, जब खाने बैठता हूँ और अपने सामने थाली में घी से चुपड़ी हुई रोटियां तथा कई  तरह की तरकारियाँ देखता हूँ और सोने  के समय जब रुई की गद्दी पर सिर के नीचे तकिया लगाकर रजाई ओढ़कर सोना चाहता हूँ तब प्राय: उन कन्कालमात्र  नंगे, भूखे, अपने ही जैसे नर-नारियों के चित्र आँखों के सामने आ जाते हैं l भगवान् के राज्य में सब न्याय ही होता है परन्तु अपनी ये सुख की सामग्रियां तो वस्तुत: बहुत ही दुःख देने वाली वस्तु मालूम होती है l यह है तो बड़े दुःख की बात कि एक देश के - एक ही घर में दस भाई-बहनों में आठ-नौ नंगे, भूखे रहें और दो-एक पेट भर खाकर सुख कि नींद सोयें l मैं  उन सभी भाइयों से, जो कुछ संपन्न हैं, कम-से-कम जो अपने तथा अपने बाल-बच्चों का अच्छी तरह भरण-पोषण करने के बाद विलासिता में मौज-शौक में धन नष्ट करते हैं या बहुत कुछ बचाकर रख लेते हैं, कहना चाहता हूँ कि धन का व्यर्थ व्यय करना छोड़कर अथवा आगे के लिए जोड़ रखने कि धुन लगाकर गरीब, दुखी मनुष्यों और पशुओं के प्राण बचाने में उसे लगाइए l तभी आपके धन के सार्थकता है l  नहीं तो धन से आपका सम्बन्ध तो छूट ही जायेगा; उसे छोड़कर आप चले जायेंगे या आपको छोड़कर वह दूसरों के हाथ में चला जायेगा l पछ्तावामात्र आपके पास रह जायेगा l
              भगवान्  ने कहा है - 'यज्ञ करने के बाद शेष बचे हुए अन्न को खोनेवाले उत्तम पुरुष सब पापों से छूटते हैं ; परन्तु  जो पापी मनुष्य केवल अपने ही भरण-पोषण के लिए पकाते (धन  पैदा करते ) हैं वे तो पाप ही खाते हैं l '

लोक-परलोक-सुधार-१ (३५३)

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Ram