दीन दुखियो के प्रति कर्तव्य
भागवत में देवऋषि नारद जी ने कहा है -
'जितने से पेट भरे - सादगी से जीवन निर्वाह हो, उतने पर ही अधिकार है | जो उससे अधिक पर अपना अधिकार मानता है , संग्रह करता है, वह दुसरो के धन पर अपना अधिकार मानने वाले के तरह चोर है और दंड का पात्र है |' (७/२४/८)
इस भाव से अपनी सारी, सब प्रकार की सम्पति पर,सबका-विश्वरूप भगवान् का अधिकार मानकार - जहा जहा दीं है, जहा जहा गरीब है, जहा जहा अभावग्रस्त है, असमर्थ है, वहा वहा तत्तत उपयोगी सामग्री के द्वारा उनकी सेवा में लगे रहना धर्म है | मनुष्य के व्यवहार में - मानव-जीवन में एक बात अवस्य आ जानी चाहिए | वह यह की अपने पास विद्या,बुधि,धन,सम्पति,भूमि,तन ,मन,इन्द्रिय जो कुछ है,उनसे जहा जहा आभाव की पूर्ति होती है ,वहा वहा उन्हें लगाता रहे यही पुण्य है-सत्कर्म है | पर जहा स्वयं संग्रह करने की प्रवर्ती होती है ,इक्कठा करके मालिकी करने की आकाक्षा रहती है,संसार की वस्तुओ को एकत्र करके उन्हें अपना लेने के वर्ति, इच्छा या चेष्टा रहती है,वहा पाप है | अपरिग्रह पुण्य है और परिग्रह पाप है |
हमारा स्वाभाव बन जाना चाहिए के हम अपनी परिस्थिति का ,प्राप्त सामग्री का,साधनों का सदुपयोग करना सीख जाये | एकत्रित सम्पति केवल भोगो में या रख छोड़ने के लिए नहीं है | पानी जहा एक जगह पड़ा रह जायेगा , उसमे कीड़े पड जायेंगे | इसी प्रकार उपयोग रहित सामग्री भी गन्दी हो जाती है | मॉस ही अभक्ष्य नहीं है | दुसरे का हक खा जाना भी अभक्ष्य भक्षण है | किसी प्रकार भी दुसरे के अधिकार पर हक जमाना पाप है |
एक राजा के यहाँ एक महात्मा आये | प्रसंगवश बात चली हक की रोटी की |
राजा ने पूछा - 'महात्मा ! हक की रोटी कैसी होती है ?'
महात्मा ने बतलाया के 'आपके नगर में एक बुढिया रहती है | जाकर उससे पूछना चाहिए |'
राजा बुढिया के पास आये और पूछा - 'माता ! मुझे हक की रोटी चाहिए |'
बुढिया ने कहा - 'राजन ! मेरे पास एक रोटी है , पर उसमे आधी हक की है और आधी बेहक़ की है |'
राजा ने पूछा -'आधी बेहक़ के कैसे ?'
बुढिया ने बताये 'एक दिन में चरखा काट रही थी | शाम का वक़्त था | अँधेरा हो चला था | इतने में उधर से एक जुलुश निकला | उसमे मसाले जल रही थी | मैंने चिराग न जला कर उन मसालों के रौशनी में आधी पूनी कात ले | उस पूनी से आटा लाकर रोटी बनायीं | अत एव आधी रोटी तो हक की है और आधी रोटी बेहक की है | इश आधी पर जुलुश वालो का हक है |'
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दुःखमेंभगवतकृपा , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ५१४
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