भगवान् ने कहा है - 'माया बड़ी दुस्तर है l इस माया से कोई भी सहज में पार नहीं हो सकता, परन्तु मेरे शरणापन्न व्यक्ति इस माया से तर जाते हैं l ' भगवान् के अतिरिक्त जो कुछ भी है - असत है, माया है और उसको जीवन से निकालना है l भगवान् के शरणापन्न होने पर जीवन में से यह मिथ्यापन निकल सकता है l मानव-जीवन में यही एकमात्र करनेयोग्य कार्य है l मानव-जीवन का यही एकमात्र कर्तव्य और उद्देश्य है l
धन की प्राप्ति चाहनेवाला मनुष्य जैसे स्वाभिविक ही क्षुद्र-सी भी धनहानि के प्रत्येक प्रसंग से बचता है और लाभ का प्रत्येक कार्य करता है; वह ऐसा इसलिए करता है कि पैसे के रहने और मिलने में अपना लाभ मानता है और जाने में या न रहने हानि; इसी प्रकार भगवान् का भजन करनेवाला पुरुष भजन होने में लाभ तथा न होने में हानि मानता है l इसलिए वह स्वाभाविक ही वही करता है जिससे भजन बनता और बढ़ता है, वह ऐसा कार्य कभी नहीं करता, जिससे भजन नहीं बनता या घट जाता है l
हम सभी आत्यन्तिक सुख चाहते हैं l ऐसा सुख चाहते हैं जो अनंत हो, परन्तु मोहवश चाहते वहां से हैं, जहाँ सुख है नहीं l अथवा उससे, जो सुख का बहुत बड़ा स्वांग तो बनाये हुए है; पर है दुःख से पूर्ण l जहर से भरी हुई मिठाई मीठी लगती है निस्संदेह, पर वह मारनेवाली ही होती है l जहर का ज्ञान न होने से या ज्ञान होने पर भी स्वाद के लोभ से लोग उसे खा लेते हैं l मीठी है तो क्या; उसका घातक प्रभाव तो होगा ही l भोग-जगत भी ठीक ऐसा ही है l इसीलिए भगवान् ने इन्द्रिय-भोगों को भोगकाल में अमृत के समान और परिणाम में विष के सदृश मारनेवाला बताया है l ' यह जगत सुखरहित है, अनित्य है और वस्त्रालय, विधालय, औषधालय की तरह 'दुःख का आलय' है और 'दुःख योनि' - दुखों की उत्पत्ति का स्थान है l इस सुखरहित, दुखालय तथा दुखों के क्षेत्र-जगत से सुख-प्राप्ति की आशा करके, केवल आशा ही नहीं, आस्था रखकर, हम उसके लिए रात-दिन प्रयत्नशील रहते हैं l यह हमारा बड़ा भारी मोह है l यह आशा, यह आस्था, यह कल्पना वैसे ही मिथ्या है, जैसे जहर को मिटाने के लिए जहर का प्रयोग, अन्धकार को निकालने के लिए दीपक का बुझा देना l तेल की आशा से बालू को कितना ही पेरा जाये, बालू काजल-सी महीन होकर उड़ सकती है, पर तेल नहीं मिलेगा l इसीलिए नहीं मिलेगा कि उसमें तेल है ही नहीं l सुखरहित भोग से सुख कि प्राप्ति असम्भव है l दुखालय और दुःख योनि जगत से सुख कि आशा ही अज्ञान है - मोहान्धकार है l
मानव-जीवन का लक्ष्य (५६)
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