Saturday 1 September 2012

बुद्धि और श्रद्धा






              मनुष्य को अपनी बुद्धि से काम लेना चाहिए, जहाँ अपनी बुद्धि काम न दे, वहां बड़ों से या जिन पर अपनी श्रद्धा हो - पूछकर उनकी अनुमति से काम करना चाहिए l यद्यपि अच्छे पुरुष जान-बूझकर अनुचित नहीं कहते; पर भूल तो सबसे होती है l ये दोनों ही बातें ठीक हैं l तथापि बुद्धि और श्रद्धा दोनों की ही आवश्यकता है l बुद्धिवाद भी इतना बढ़ जाना बहुत हानिकर होता है, जहाँ अभिमानवश अपनी बुद्धि के सामने सब की बुद्धि का तिरस्कार किया जाना लगे l और श्रद्धा भी इस रूप में नहीं परिणत हो जनि चाहिए, जिससे इश्वर, सत्य और सदाचार के विरुद्ध मत को किसी के कहनेमात्र से स्वीकार कर लिया जाये l मर्यादित रूप से बुद्धि हो और यह भी माना जाये की इश्वर की सन्तानों में सम्भवत: मुझसे भी अधिक बुद्धिमान पुरुष हो चुके हैं और हो सकते हैं l
               मेरी धारणा में तो बुद्धिवाद की अपेक्षा श्रद्धा बहुत ही ऊँची और उपादेय वस्तु है, परन्तु उसकी कसौटी यही है की इश्वर या सत्य का श्रद्धालु कभी पाप का आचरण नहीं कर सकता l बुद्धिवादियों में भी यह भाव रहना आवश्यक है की वे अपने लिए अपनी बुद्धि से काम लेने का जितना अधिकार समझते हैं उतना ही दूसरों के लिए भी माने, चाहे वे निम्न श्रेणी के लोग माने जाते हों या कम विद्या-प्राप्त  हों l इसमें कोई संदेह नहीं की आँख मूंदकर तो किसी की बात नहीं माननी चाहिए, तथापि कुछ ऐसी बातें भी जगत में होती हैं, जो हमारी समझ में नहीं आती, पर सत्य होती हैं और जिस पर हमारा भरोसा होता है,उसके विश्वास पर हमें उनको स्वीकार भी करना पड़ता है और स्वीकार करना भी चाहिए l
                इसी प्रकार ईश्वरीय साधन-क्षेत्र में भी है - मैं तुम्हें विश्वास दिलाकर कह सकता हूँ l  इसमें कोई संदेह नहीं की आजकल ढोंग बहुत ज्यादा बढ़ गया है, जिससे यह निर्णय नहीं हो सकता की श्रद्धा, किस पर की जाये l जिस पर श्रद्धा की जाती है, प्राय: वही ठग, स्वार्थी, कामी, क्रोधी या लोभी निकलता है l भेड़ की खाल में भेड़िया साबित होता है l इसलिए विश्वास तो खूब ठोक-पीटकर करना चाहिए और यथासाध्य सचेत रहना चाहिए तथा इस बात पर भरोसा करके अपनी बुद्धि से पूरा काम लेना चाहिए l ईश्वर का आश्रय लेकर अपनी बुद्धि से काम लेनेवाला निरहंकारी पुरुष कभी नहीं ठगा सकता  l    

लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)        
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Ram