ब्राह्मण के लिए यदि ब्राह्मण ही गुरु मिल जाये तो वह सर्वोत्तम है l केवल ब्राह्मण का ही नहीं, समस्त वर्णों का गुरु ब्राह्मण है - 'वर्णानाम ब्राह्मणो गुरु: l ' किन्तु यदि ब्रह्मनिष्ठ, भगवत्प्राप्त एवं गुरुचित गुणों से संपन्न ब्राह्मण गुरु न मिल सके तो उक्त गुणों वाले क्षत्रिय अथवा वैश्य से भी श्रद्धापूर्वक परमार्थ पथ का उपदेश लिया जा सकता है - यह बात शास्त्रों द्वारा अनुमोदित है l छान्दोग्योपनिषद में कथा आती है - 'आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु तथा स्वयं आरुणि ने भी पंचालराज प्रवाहण से उपदेश ग्रहण किया था l ' पंचालराज क्षत्रिय थे आरुणि ब्राह्मण l इसी प्रकार महाभारत में कथा आती है कि एक तपस्वी ब्राह्मण ने किसी पतिव्रता देवी के भजने से व्याध के पास जाकर उपदेश ग्रहण किया था l एक कथा है - एक ब्राह्मण ने तुलाधार वैश्य के पास जाकर उपदेश देने के लिए उनसे प्रार्थना की थी l इतना ही नहीं, उन्हें माता-पिता में भक्ति रखनेवाले एक चाण्डाल के यहाँ भी उपदेश लेने के लिए जाना पड़ा था l ये सभी अपवाद-स्थल हैं l तात्पर्य इतना ही है कि वास्तव में गुरु उत्तम वर्ण का होना चाहिए l अभाव में निम्नवर्ण के योग्य पुरुष कि शरण लेने में भी कोई हानि नहीं है l
ईश्वर प्राप्ति अथवा मोक्षमार्ग में प्रवृत करानेवाले गुरु का महत्व सबसे बढ़कर है l साधन-सम्बन्धी उपदेश उन्हीं से लेना और उसका दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए l अन्य संत-महात्माओं तथा गुरुजनों से भी सत्संग के तौर पर उत्तम बातें लेने में कोई हर्ज नहीं है l सत्संग से साधन में रूचि बढती है और दृढ़ता आती है l अत: वह प्रत्येक साधक के लिए लाभदायक है l
कुल परम्परा से यदि घर में श्री विष्णु की अथवा देवी की पूजा होती चली आ रही हो तो उसका पालन होना ही चाहिए l कुल के प्रत्येक व्यक्ति को उस परम्परा की रक्षा में सहयोग करना चाहिए l इसके अतिरिक्त अपनी श्रद्धा-भक्ति के अनुसार जिन्हें ह्रदय के सिंहासन पर बिठाया है, उन श्रीकृष्ण अथवा श्री राम आदि इष्टदेव की पूजा भी करनी चाहिए l
सुख-शान्ति का मार्ग(३३३)
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