Wednesday, 5 September 2012

आध्यात्मिक विचार





          मुक्त होने पर जीव परमात्मा में इस प्रकार लीन नहीं होता, जैसे घड़े का पानी समुद्र के जल में, क्योंकि जल की तरह जीव और परमात्मा सावयव पदार्थ नहीं है l वे तो वास्तव में एक ही हैं l  अब विचार यह है कि 'परमात्मा के अवतार लेने पर परमात्मा में लीन हुए मुक्त जीव को भी संसार-बन्धन होता है या नहीं ? ऐसे स्थिति में यदि अवतार लेने पर परमात्मा को ससार-बन्धन माना जाये तब तो किसी प्रकार ऐसी शंका हो भी सकती है l  क्योंकि जीवात्मा परमात्मा में लीन नहीं होता l किन्तु जब परमात्मा को ही बन्धन नहीं होता तो मुक्तात्मा को क्यों होगा ? परमात्मा जो 'शरीर' धारण करते हैं वह उनका स्वेच्छामय दिव्य निर्गुण देह होता है  - प्रकृति का कार्य नहीं होता l उसमें और स्वयं चिदरूप श्रीभगवान में कोई तात्विक भेद नहीं होता l यही सामान्य जीव और परमात्मा के देह धारण में अंतर है l इस प्रकार जब भगवद्विग्रह स्वयं भगवतत्व ही हैं तो वह उनका किस प्रकार बन्धन कर सकता है ? अत: अवतारशरीर के विषय में आपकी यह शंका बन ही नहीं सकती l
            'जड़' शब्द का अर्थ है दृश्य l  जो कुछ भी बाह्य और आन्तर इन्द्रियों का विषय होता है वह दृश्य ही है और इसी से जड़ भी है l चेतन से जड़ की उत्पत्ति नहीं हो सकती l इसी से चेतन को कारण मानने वाले अद्वैत वेदान्ती दृश्य की सत्ता स्वीकार नहीं करते l  अत: इस शंका से उनके सिद्धांत में कोई बाधा नहीं आती l यदि दृश्य की उत्पत्ति की कोई व्यवस्था ही लगानी हो तो जैसे निद्रा-दोष से स्वप्नद्रष्टा ही स्वप्नरूप होकर नदी, पर्वत, पशु, पक्षी और मनुष्य आदि के रूप में दिखाई देने लगता है, वैसे ही अज्ञानवश शुद्ध चेतन ही जड़-प्रपंच के रूप में भासने लगता है - यही समझना चाहिए l

लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)              
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Ram