मुक्त होने पर जीव परमात्मा में इस प्रकार लीन नहीं होता, जैसे घड़े का पानी समुद्र के जल में, क्योंकि जल की तरह जीव और परमात्मा सावयव पदार्थ नहीं है l वे तो वास्तव में एक ही हैं l अब विचार यह है कि 'परमात्मा के अवतार लेने पर परमात्मा में लीन हुए मुक्त जीव को भी संसार-बन्धन होता है या नहीं ? ऐसे स्थिति में यदि अवतार लेने पर परमात्मा को ससार-बन्धन माना जाये तब तो किसी प्रकार ऐसी शंका हो भी सकती है l क्योंकि जीवात्मा परमात्मा में लीन नहीं होता l किन्तु जब परमात्मा को ही बन्धन नहीं होता तो मुक्तात्मा को क्यों होगा ? परमात्मा जो 'शरीर' धारण करते हैं वह उनका स्वेच्छामय दिव्य निर्गुण देह होता है - प्रकृति का कार्य नहीं होता l उसमें और स्वयं चिदरूप श्रीभगवान में कोई तात्विक भेद नहीं होता l यही सामान्य जीव और परमात्मा के देह धारण में अंतर है l इस प्रकार जब भगवद्विग्रह स्वयं भगवतत्व ही हैं तो वह उनका किस प्रकार बन्धन कर सकता है ? अत: अवतारशरीर के विषय में आपकी यह शंका बन ही नहीं सकती l
'जड़' शब्द का अर्थ है दृश्य l जो कुछ भी बाह्य और आन्तर इन्द्रियों का विषय होता है वह दृश्य ही है और इसी से जड़ भी है l चेतन से जड़ की उत्पत्ति नहीं हो सकती l इसी से चेतन को कारण मानने वाले अद्वैत वेदान्ती दृश्य की सत्ता स्वीकार नहीं करते l अत: इस शंका से उनके सिद्धांत में कोई बाधा नहीं आती l यदि दृश्य की उत्पत्ति की कोई व्यवस्था ही लगानी हो तो जैसे निद्रा-दोष से स्वप्नद्रष्टा ही स्वप्नरूप होकर नदी, पर्वत, पशु, पक्षी और मनुष्य आदि के रूप में दिखाई देने लगता है, वैसे ही अज्ञानवश शुद्ध चेतन ही जड़-प्रपंच के रूप में भासने लगता है - यही समझना चाहिए l
लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)
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