Friday 7 September 2012

गुरु, साधु, महापुरुष







अब आगे...........
         
             अवश्य ही भगवान् को गुरु बनाया जा सकता है l भगवान् शंकर 'सद्गुरु' और भगवान् श्रीकृष्ण 'जगद्गुरु' के नाम से प्रसिद्ध ही हैं l वरं भगवान् को गुरु वरण करना और भी उत्तम  है l सच्ची निष्ठां होगी तो भगवान् गुरुरूप से अंतरात्मा से ऐसी शुभ और यथार्थ प्रेरणा करते रहेंगे तथा इस प्रकार  कुशलता के साथ आपको साधन क्षेत्र में आगे बढ़ाते रहेंगे कि उसकी तुलना कहीं भी नहीं मिल सकेगी l
             मेरी समझ से स्त्रियों के लिए किसी मनुष्य विशेष को गुरु करने के आवश्यकता नहीं है l  वे अपने पति को या सबसे परमपति श्रीभगवान को भी गुरु रूप में मानकर उनके आदेशानुसार चलें, इसी में कल्याण है l परपुरुष के चरणस्पर्श और उनका ध्यान करना उचित नहीं है और इसका प्राय: उत्तम फल भी नहीं होता l
             गुरु में ईश्वर से बढ़कर श्रद्धा भक्ति होनी चाहिए यह सत्य है, ऐसा ही होना चाहिए, परन्तु वे गुरु भी वैसे त्यागी, अनुभवी महात्मा ही होने चाहिए जिनका संग और उपदेश शिष्य के परम कल्याण में प्रधान कारण हो l केवल मन्त्र देकर पैसे लेने वाले, स्त्रियों कि ओर बुरी नज़र से ताक्नेवाले, विलासिता तथा भोगसुखों में रचे-पचे हुए नाम के गुरुओं के लिए यह बात नहीं l
             गुरु या आचार्य के लक्षण बतलाते हुए शास्त्रों के कहा गया है  - 'आचार्य वेद के ज्ञाता, भगवान् के भक्त, मत्सर रहित , मन्त्र  का मर्म जानने वाले, मन्त्र के भक्त, मन्त्राश्रयी, शरीर और मन से पवित्र, उत्तम सम्प्रदाय युक्त, ब्रह्मविद्या में पारंगत, अनन्य साधनायुक्त, भगवान् के अतिरिक्त दूसरे कोई भी प्रयोजन को न रखने वाले, साधनसम्पन्न, वैराग्यवान, क्रोध-लोभ से सर्वथा रहित, सदवृतियों में स्थित सदुपदेशक, स्थिरबुद्धि और परमात्मा को (तत्वत:) जाननेवाले होते हैं l जिनमें ऐसे गुण हों वही आचार्य कहलाते हैं l  वस्तुत: जो आचार का उपदेश करते हैं वे आचार्य कहे जाते हैं  l '


लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)                
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Ram