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भगवान् के विधान से जो कुछ भी मिल जाये, जो उसी में सन्तुष्ट है. सब अवस्थाओं में समान चित्त वाला है, इन्द्रियों को वश में किये है, श्री हरि के चरणकमलों का आश्रय लिए हुए है, ज्ञानवान है, संसार में किसी की निन्दा नहीं करता वह साधु है l जो किसीसे वैर नहीं रखता, दयावान है, शान्त है, दम्भ और अहंकार से सर्वथा रहित है, किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं रखता, भगवान् के मनन में लगा रहता है, विषयों का चिन्तन नहीं करता, परम वैराग्यवान है वही साधु कहा जाता है l जो लोभ, मोह, मद, क्रोध और काम से रहित है, सदा आनन्द में डूबा रहता है, भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों की शरण है, सहनशील तथा सब में समदर्शी है, वही साधु है l जो अपने प्राण, शरीर और बुद्धि को श्रीकृष्ण के अर्पण कर चुका है, जिसको स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति और इन्द्रियसुखविषयक वासना शान्त हो गयी है , जिसका चित्त आसक्तिरहित है, जिसका श्रवण-कीर्तन आदि में प्रेम है और जो निरन्तर श्री हरि का ही हो रहा है, इस लोक में वही साधु है l जिसके केवल श्रीकृष्ण का ही आश्रय है, जो श्रीकृष्ण प्रेम में ही आसक्त है, 'कृष्ण' इस इष्ट मन्त्र के स्मरण के कारण जो सबका पूजनीय है, श्रीकृष्ण के ध्यान में ही जिसका मन निरन्तर लगा हुआ है, जो श्रीकृष्ण का ही अनन्य भक्त है, हे मुनिवर्य ! वही कृष्णभक्त साधु है l
साधु संगति की महिमा से शास्त्र भरे हैं और यह युक्तिसंगत भी है कि मनुष्य जिस प्रकार की संगति में रहता है, वह उसी प्रकार बनता है l सत्संग से अन्त:करण की शुद्धि, मोक्ष की योग्यता तथा सबसे दुर्लभ भगवत्प्रेम तक की प्राप्ति होती है l वे मनुष्य बड़े भाग्यवान हैं जो कुसंगति से बचे हैं और सत्संगति से लाभ उठाते हैं l अन्त:करण की शुद्धि के दो अंग हैं - १- पाप तथा पापविचारों का नाश और २- सद्विचार, सद्गुण तथा सत्कर्मों की प्राप्ति l ये दोनों ही कार्य सत्संगति से सहज ही होते हैं l
लोक-परलोक-सुधार-१(३५३)
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