अब आगे......
साधक में सिद्धपुरुष की-सी समता नहीं होती और जब तक वह सिद्धावस्था में नहीं पँहुच जाता, तब तक समता उसके लिए आवश्यक भी नहीं है l उसमें विषमता होनी चाहिए और वह होनी चाहिए विषयी पुरुष में सर्वथा विपरीत l उसे सांसारिक भोग-वस्तुओं में वितृष्णा होनी चाहिए l सांसारिक सुखों में दुःख की भावना होनी चाहिए और दुखों में सुख की l सांसारिक लाभ में हानि की भावना होनी चाहिए और हानि में लाभ की l सांसारिक ममता के पदार्थों की कमी में अधिकाधिक बंधन-मुक्ति की जगत में उसका सम्मान मरनेवाले, पूजा-प्रतिष्ठा करनेवाले, कीर्ति, प्रशंसा और स्तुति करनेवाले लोग बढ़ें तो उसे हार्दिक प्रतिकूलता का बोध होना चाहिए और इनके एकदम न रहनेपर तथा निन्दनीय कर्म सर्वथा न करने पर भी अपमान, अप्रतिष्ठा और निन्दा प्राप्त होने पर अनुकूलता का अनुभव होना चाहिए l जो लोग साधक तो बनना चाहते हैं पर चलते हैं विषयी पुरुष के मार्ग पर तथा अपने को सिद्ध मानकर अथवा बतलाकर समता की बाते करते हैं , वे तो अपने को और संसार को धोखा ही देते हैं l निष्काम कर्मयोग की, तत्वज्ञान की या दिव्य भगवत्प्रेम की ऊँची-ऊँची बातें भले ही कोई कर ले l जब तक मन में विषयासक्ति और भोग-कामना है, जब तक विषयी पुरुषों की भांति भोग-पदार्थों में अनुकूलता-प्रतिकूलता है तथा राग-द्वेष है, तब तक वह साधक की श्रेणी में ही नहीं पँहुच पाया है, सिद्ध या मुक्त की बात तो बहुत दूर है l मन में कामना रहते केवल बातों से कोई निष्काम कैसे होगा ? संसार की प्रत्येक अनुकूल कहानेवाली वस्तु में, भोग में और परिस्थिति में साधक को सदा-सर्वदा दुःख-बोध होना चाहिए l दुःख का बोध न होगा तो सुख का बोध होगा l सुख का बोध होगा तो उनकी स्पृहा बनी रहेगी l मन उनमें लगा ही रहेगा l इस प्रकार संसार के भोगादि में सुख का बोध भी हो, उनमें मन भी रमण करता रहे तथा उनको प्राप्त करने की तीव्र इच्छा भी बनी रहे और वह भगवान् को भी प्राप्त करना चाहे - यह बात बनती नहीं l
मानव-जीवन का लक्ष्य (५६)
0 comments :
Post a Comment