Thursday, 11 October 2012

कृपाशक्त्ति प्रधान है


जितने भी भगवत्प्राप्त महापुरुष हुए हैं, उन सबकी स्थितियाँ पृथक्-पृथक् हैं; पर तत्त्वतः सभीने एक ही सत्यको प्राप्त किया है! साधानकालमें  मार्गकी भिन्नता रहती है --- जैसे किसीमें ज्ञान प्रधान होता है, किसीमें भक्ति, किसीमें निष्काम कर्म तथा किसीमें योग-साधन! पर सबका प्राप्तव्य एक ही भगवान् है! अतएव महापुरुष सभी साधनोंका आदर करते हैं; पर जिस साधनद्वारा वे वहाँतक पहूँचे हैं, उसीका वे विशेषरूपमें  समर्थन करते हैं, कारण उस साधनका उन्हें व्यवहारिक ज्ञान अधिक है! जगतका कोई भी सौन्दर्य न स्थायी है और न वर्धनशील; वह अनित्य है, विनाशी है, क्षणभंगुर है, अपूर्ण है! भगवान् का सौन्दर्य नित्य है तथा पूर्णतम होते हुए भी नित्य वर्धनशील है! 

भगवान् के आश्रयके लिये आवश्यकता है --- दैन्यकी! 'दैन्य ' का अर्थ है -- अभिमान - शुन्यता! हममें नाना प्रकारके अभिमान भरे हैं -- जैसे धनका अभिमान, पदक अभिमान, साधनका अभिमान, ज्ञानका अभिमान, त्यागका अभिमान, सेवा करनेका अभिमान आदि ! जहाँ- जहाँ अभिमानका उदय होता है, वहाँ-वहाँ भगवान् की विस्मृति हो जाती है! पर भक्तोंका यह अभिमान कि " मैं भगवान् का हूँ, भगवान् मेरे हैं, भगवान् की मुझपर अपार कृपा है' --- वास्तवमें अभिमान   नहीं है! यह एक परम सात्त्विक मान्यता है, जो साधनाका आधार है! 



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Ram