जबतक हमारे
मन में कामादि दोष भरे हुए हैं और जब तक उन दोषों
के कारण से हम जगत के प्राणी-पदार्थ की आशा रखते हैं एवं भगवान पर विश्वास
नहीं करते , तबतक हम भगवान पर निर्भर कहाँ हुए और निर्भर हुए बिना भगवान अपने मन
की क्यों करें ? करते तो अपने मन की ही हैं , परन्तु हमें नहीं जँचता; इसलिए की
भगवान अपने मन की करके हमारा मंगल कर देंगे । हम अपने मन के मंगल में भगवान की
कृपा मानते हैं । अपने मन का मंगल न मिलने पर अकृपा मानते हैं । इसलिए हमारे
मंगल-अमंगल की कल्पना हमारे मनमे प्रधान है । भगवान की कृपा प्रधान नहीं है ।
इसलिए हम दुखी हैं और यह दुःख कभी मिटने का नहीं ; क्योंकि कहीं आशा पूरी होगी तो
नयी आशा आ जायगी और आशा पूरी नहीं होगी तो न पूरा होने का दुःख होगा ; क्योंकि जगत
की आशा कभी पूरी होती ही नहीं है ।
‘बुझै
न काम अगिनि तुलसी कहूँ , बिषय-भोग बहु घी ते ।।’
जैसे आग
में घी डालते जाओ तो आग बुझेगी ही नहीं । इसीप्रकार भोगों की प्राप्ति से भी कामना
की आग बुझेगी ही नहीं । इसीलिए भोगों की आशा से यहाँ कभी सुख न किसी को मिला है न
मिल सकता है और न ही मिलेगा । भूगों की आशा तो छोडनी ही पड़ेगी यदि सुखी होना है तो
। जहाँ यह आशा छूटी , फिर प्रत्येक अवस्था में सुख है । पांच
सात चीजें हमने ऐसी मान रखी हैं , जिनका नाम दुःख है । निंदा , अपमान, शरीर रोगी
हो गया , धन नहीं रहा , खाने-पीने-पहनने का आराम नहीं रहा, लोग पूछने वाले नहीं
रहे इत्यादि । इन्ही सब का नाम तो
दुःख है न । ये सब चीजें जो शरीर नश्वर है, उसके साथ – नश्वरता के साथ लगी हैं ।
जिनके पास हैं , उनकी भी रहेंगी नहीं । इनका तो वियोग होगा ही , इनसे सम्बन्ध तो
छूटेगा ही , इनसे ममत्व रहेगा ही नहीं । अगर हम यह समझ लें कि हमारे भगवान ही इन
दुखों का विधान करते हैं हमारे मंगल के लिए । हमारे भगवान ही इन दुखों के रूप में
आकार स्पर्श कराते हैं । विश्वास ही तो है । भाव पलटा और ये चीजें मन में आयी कि इन
चीजों का स्वाद न लो । भगवान के दर्शन जिसमे मिले वही संपत्ति है और भगवान के
दर्शनों को जो हटा दे वही विपत्ति है ।
कल्याण संख्या – ९ ,२०१२
श्री
हनुमान प्रसाद जी पोद्दार – भाईजी
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