Friday, 26 October 2012

रास-रहस्य [त्याग की पराकाष्ठा]




अब आगे............
         भगवान् का यह मिलन कब होता है ? जब और किसी वस्तु की कल्पना भी मन में नहीं रह जाती और जब भगवान् के मिलन के लिए चित्त अनन्य रूप से अत्यंत आतुर हो जाता है l  यह दशा जब होती है और भगवान् जब इस को देख लेते हैं कि अब यह तनिक-सा संकेत पते ही, सर्वस्व का त्याग तो कर ही चूका है, उस सर्वस्व के त्याग को प्रत्यक्ष करके आ जायेगा l  इस प्रकार कि स्थिति जब भगवान् देखते हैं, तब वे मुरली बजाते हैं और वह मुरली-ध्वनि उन्हीं को सुनाई भी देती है l ब्रज में भी उस समय मुरली तो बजी और मुरली कि जो ध्वनि दिव्य लोकों में पहुँच-पहुँच कर वहां के देवताओं को भी स्तंभित कर देती है - उस मुरली कि ध्वनि को भी उस दिन - आज के दिन - शारदीय रात्रि के दिन - सब ने नहीं सुना l  वह ध्वनि केवल उन्हीं के कानों में गयी थी जो भगवान् से मिलने के लिए आतुर थे, जिनका ह्रदय अत्यंत उत्तप्त था भगवत-मिलन-सुधा के लिए l  केवल उन्हीं के  हृदय में, उन्हीं के कानों में भगवान् की वह मुरली-ध्वनि पहुँची l  मुरली-ध्वनि क्या थी - भगवान् का आवाहन था, क्योंकि उनकी साधना पूर्ण हो चुकी थी l  भगवान् ने अगली रात्रियों में उनके साथ विहार करने का प्रेम-संकल्प जो कर लिया था l
         मुरली बजी-तब क्या हुआ ? बड़ी सुन्दर भावना है l  यह स्थिति होती है भगवान् के यथार्थ विरही साधक की l  बड़ी ऊँची स्थिति है यह l  कहते हैं - मुरली बजी और मुरली की गीत-ध्वनि उन्होंने सुनी l वह गीत कैसा था ? 'अनंगवर्धक' था l  ये जितनी भी संसार में हम प्रकृति की वस्तुएं देखते हैं, इसमें कोई भी अनंग नहीं है l प्रकृति स्वयं अनंग नहीं है,  अंगवाली है और ये अंगवाली कोई भी चीज गोपियाँ मन में नहीं रही l  किन्तु वह 'अनंग' कौन है ? भगवान् हैं - प्रेम है l  और कोई भी अनंग है ही नहीं  l  
    
मानव-जीवन का लक्ष्य(५६)                       
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Ram