Friday 5 October 2012

साधना के दो प्रकार





अब आगे.......


          अन्त:प्रेरणा से होने वाली इस साधना में न विवेक है, न वैराग्य है; न विवेक का त्याग है, न वैराग्य का त्याग है l साथ ही न विवेक की आवश्यकता है और न वैराग्य ही l इस स्थिति की साधना में एक स्वाभाविक गति है, उसका एक स्वाभाविक स्वरुप है l वह स्वरुप जब कभी किसी के जीवन में आता है, वह धन्य है l
          श्रीचैतन्य महाप्रभु के जीवन में इस तरह की बात मिलती है l  श्रीचैतन्य महाप्रभु का पहले नाम था श्री निमाई पण्डित न्याय के प्रकाण्ड पण्डित थे l न्याय चलता ही है तर्क पर, न्याय का अर्थ ही है तर्क द्वारा किसी वस्तु को सिद्ध करना l  श्री निमाई पण्डित न्याय के इतने बड़े पण्डित थे कि बड़े-बड़े दिग्गज न्याय-शास्त्री शास्त्रार्थ में उनसे पराजित हो चुके थे l अवस्था कम होने पर भी श्री निमाई पण्डित नवद्वीप के सर्वोपरि नैयायिक थे l  दूर-दूर से बड़ी-बड़ी उम्र वाले प्रौढ़ विद्वान युवक श्री निमाई पण्डित के पास पढने के लिए आया करते थे l श्री निमाई पण्डित के गुरु जी भी नवद्वीप में  ही थे, पर वे विद्वान गुरु जी के पास न जाकर श्री निमाई पण्डित के पास ही पढने के लिए आया करते थे l
           ऐसे श्री निमाई पण्डित गया गए और गया में भगवान् के श्री चरणकमलों का दर्शन करके वहीं उनका जीवन पलट गया l  उनकी साधना बिलकुल पलट गयी l  गया से लौटकर नवद्वीप आये और पूर्वाभ्यासवशात पाठशाला गए l  पढने के लिए आये हुए विद्यार्थियों ने प्रणाम किया तथा पढ़ाने के लिए प्रार्थना की  l श्री निमाई पण्डित बोले -
                        राम  राघव   राम  राघव   राम  राघव  रक्ष  माम  l
                        कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहि माम l l

            विद्यार्थियों ने यही समझा कि सम्भवत: यह मंगलाचरण है l  थोड़ी देर बाद फिर विद्यार्थियों द्वारा पाठ पढाये जाने की प्रार्थना किये जाने पर श्री निमाई पण्डित ने फिर वही दोहरा दिया और कहा - 'पाठ ही तो दे रहा हूँ l ' विद्यार्थियों ने जाकर गुरु जी आचार्य श्री गंगादास जी से वस्तुस्थिति का निवेदन कर श्री निमाई पण्डित को समझाने के लिए प्रार्थना की l गुरु जी ने श्री निमाई पण्डित को बुलाकर पूछा - 'क्या तुम्हारे द्वारा ऐसा हुआ है l ' श्री निमाई पण्डित ने कहा - 'हाँ l ' गुरु जी ने समझाते हुए कहा - 'अब ठीक से पढ़ाना l ' श्री निमाई पण्डित ने कहा - 'हाँ, प्रयत्न करूँगा l  पर मैं क्या करूँ, मेरे वश की बात नहीं है l पर प्रयत्न कैसे हो ? चित्त की तो दशा ही बदल गयी l  यह परिवर्तन अपने-आप ही हुआ था, विवेकजनित तो था नहीं l ' फिर वही कीर्तन चला विद्यार्थीगण लौट आये और फिर बाद में निराश होकर अपने-अपने घर वापस चले गए l  श्री निमाई पण्डित के कीर्तन में ऐसी मत्तता होती, वायुमंडल पर उसका ऐसा प्रभाव होता कि जो भी समीप से निकलता, वही नाचने लगता l  अत: नवद्वीप के पण्डितों ने उस मार्ग से निकलना बंद कर दिया l  इतना प्रभाव उस स्वाभाविक कीर्तन का पड़ा l  


मानव-जीवन का लक्ष्य(५६)      
If You Enjoyed This Post Please Take 5 Seconds To Share It.

0 comments :

Ram