Friday 2 November 2012

एकान्तस्थित महात्मा से विश्वकल्याण




            एकान्त में रहकर या मौन रखकर मनुष्य यदि साधना में मन लगा सके तो उसके द्वारा उसका अपना और जगत का जितना उपकार होता है, उतना उपदेशकों, व्याख्यानदाताओं और प्रचारकों के द्वारा कदापि नहीं होता l  प्रचारक की वृति बाह्य रहती है l  उसमें यदि पहले की कुछ शक्ति संगृहीत होती है तो वह प्रचार के क्षेत्र में बाहर निकल-निकल कर समाप्त हो जाती है l  नयी शक्ति का संग्रह होता नहीं और फिर प्रचार का काम पल्ले बांध जाने से पूँजी समाप्त हो जाने पर उसे दम्भ करना पड़ता है l  इसलिए भी एकान्त में रहकर मौन-साधना करना उत्तम है l दूसरे, एक महात्मा यदि परम सिद्ध और शक्ति-सम्पन्न हों तो वे कहीं एकान्त में मौन रहकर भी अपने शक्ति-भण्डार से नित्य-निरन्तर अपने-आप जगत को जितना देते हैं, वे जितना विश्व का महान कल्याण करते हैं, उतना कोई भी बाह्य समर्थ तथा सच्चा प्रचारक भी नहीं कर सकता l
            साधन अच्छा हुए बिना साध्य अच्छा नहीं हो सकता l बीज के अनुसार ही फल होगा l जो मनुष्य भगवान् के विरोधी निषिद्ध कर्मों को करता हुआ भी भगवान् की प्रसन्नता चाहता है, वह वैसा ही है, जो आक का बीज बोकर आम चाहता है l अतएव न तो साध्य के विषय में कोई तर्क करना चाहिए, न अपने में बिना हुए ही साध्य वस्तु को प्राप्त महापुरुषों के समान अपने को दिखाना चाहिए l  जो लोग मिथ्या ही अपने को सिद्ध पुरुष मानकर साधन छोड़ देते हैं, वे तो बहुत ही नीचे गिरे हुए होते हैं l वे केवल अपना ही नुकसान नहीं करते, दूसरों को भी गिराने में हेतु बनते हैं l उनकी देखा-देखी उनमें श्रद्धा रखनेवाले लोग भी साधन छोड़कर गिर जाते हैं l  इस सम्बन्ध में भगवान् श्रीकृष्ण के गीता में कहे हुए अध्याय ३ के २१ वें से २६ वें  श्लोक तक के भावों का मनन करना चाहिए, जिनमें भगवान् ने अपने लिए भी यह कहा है कि 'मुझे न तो कुछ प्राप्त करना है और न मेरा कहीं कोई कर्त्तव्य है, तथापि मैं सावधानी के साथ इसलिए आदर्श व्यवहार और कर्म का आचरण करता हूँ कि मेरी  देखा-देखी  लोग सत्कर्मों का परित्याग करके नष्ट न हो जाएँ l '

सुख-शान्ति का मार्ग[३३३]      
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Ram