Saturday, 24 November 2012

जिसका अन्त सुधरा, वही सफल -जीवन है


        मनुष्य के आभ्यन्तरिक मन की वस्तुतः क्या स्थिति है, उसमें किस प्रकार के कौन-से संस्कार लिए हैं, इसका पता बाहरी आचरणों से नहीं लगता l  बाह्य मन से भी वे संस्कार छिपे रहते हैं, स्वप्न, सन्निपात अथवा उन्माद की अवस्था में कहीं कहीं न्यूनाधिक रूप में मनुष्य के भीतरी मन के संस्कार प्रकट हुआ करते हैं l
        किसी परिस्थिति में पड़कर एक मनुष्य चोरी करता था, परन्तु उसके भीतरी मन में चोरी से घृणा थी, अतएव वह जब-जब चोरी करता, तभी तब उसके भीतरी मन पर अज्ञातरूप से ऐसा आघात लगता कि उसे ज्वर हो जाता l फिर उसके मन में आता - 'चोरी से आई हुई चीज़ जिसकी है, उसे वापस कर दी जाये l ' जब वह वापस  करता , तब उसे चैन पड़ता - उसका बुखार उतरता l
         एक हमारे परिचित सज्जन थे l अब उनका देहान्त हो गया l  वे एक प्रसिद्ध  आश्रम में रहते थे l  थे सच्चे आद्मिल l  आश्रम के सारे नियमों का वे पालन करते, पर उनके भीतरी मन में काम-वासना थी l वह समय-समय पर जब प्रकट होती, तब वे अकेले में ही अश्लील शब्दों का उच्चारण करने लगते l
         एक आदमी के भीतरी मन से एक साधू के प्रति बुरा भाव हो गया था और बार-बार उसके मन में आता कि इसको मार दिया जाये l  साधू बहुत अच्छे व्यक्ति थे l  उनके द्वारा हजारों-हजारों लोगों को सन्मार्ग और प्रकाश मिलता था l  उस आदमी की भी साधू  के सद्भाव के प्रति भक्ति थी l  वह उनकी सेवा भी करना चाहता था l  उसने सोचा - 'मैं इनका शिष्य हो जाऊँ और सेवा किया करूँ l ' वह शिष्य होकर सेवा करने लगा l   उसमें जरा भी बनावट नहीं थी, वह सच्चे ह्रदय से ही शिष्य बनकर सेवा करता था; पर जब-जब वह अकेले में साधुजी की सेवा करता, उसके भीतरी मन का वैर-भाव बाहर प्रकट हो जाता और उसके मन में आता - 'मैं इन्हें अभी मार डालूँl ' इसी मानसिक अवस्था में वह एक दिन कहीं से एक कुल्हाड़ी ले आया और दूसरे ही दिन  सचमुच उसने साधू को कुल्हाड़ी से मार डाला l

सुख-शान्ति का मार्ग[३३३]    
If You Enjoyed This Post Please Take 5 Seconds To Share It.

0 comments :

Ram