भविष्य में क्या होगा - इसका पूरा पता तो विधान-कर्ता भगवान् को ही है l पर यह निश्चय है कि भगवान् सब मंगल करते हैं और जो कुछ भी हमारे लिय फलरूप में विधान करते हैं, वह मंगलमय ही होता है - अवश्य ही उसका स्वरूप अत्यंत भयानक, रौद्र तथा प्रलयंकर हो सकता है अथवा अत्यंत सौम्य, शान्त तथा सुखकर भी हो सकता है l वह भी होता है हमारे किये कर्मों के फल स्वरुप ही l अतएव वर्तमान में हमारे जैसे कर्म हो रहे हैं और हमारे कर्मों के प्रेरक हमारे मन के जैसे विचार हैं, उन्हें देखते परिणाम भयानक दुखमय ही प्रतीत होता है, यद्यपि वह भी होगा मंगलमय ही l
इस समय हमारे जीवन में 'अहम्' का अय्तंत प्रभाव है और वह 'अहम्' संकुचित होते-होते इतना सीमित और क्षुद्र हो गया है कि हमारा हित और हमारा सुख बहुत छोटे-से दायरे में आकर गन्दा और कुवासनापूर्ण हो गया है l इसी से आज का मानव सर्वमय सर्वाधार भगवान् को, एक आत्मा को, विश्व-चराचर को, विश्व के चेतन प्राणियों को, मानव जाति को, राष्ट्र समूहों को , देश को, जाति को और अपने कुटुम्ब को भो प्राय: भूलकर केवल अपने व्यक्तिगत भौतिक वैभव-पद-अधिकार-सुख की प्राप्ति को ही एकमात्र जीवन का ध्येय समझ बैठा है और केवल इसी क्षुद्र सीमित उदेश्य की सिद्धि के लिए चिन्तामग्न और क्रियाशील बना हुए है l उसे न ईश्वर का भय है न धर्म की परवा और न दूसरों के कष्ट-दुःख का विचार - केवल उसका अपना काम सधना चाहिए, भले ही सब का विनाश हो जाये l और जो दूसरों के ह्रास-विनाश पर अपना विकास सिद्ध करना चाहता है, वह तो विनाश को ही प्राप्त होगा, जब हम सभी दूसरों का विनाश करके अपना विकास चाहेंगे, तब सहज ही सब , सब के विनाश में लगेंगे और परिणामत: सभी का विनाश होगा l इस आसुरी भावना से सभी की अधोगति और दुर्गति होगी l
आज समस्त विश्व में और हमारे भारत में भी एक-दूसरे को नीचा दिखने की, गिराने की, हानि पहुँचाने के, मारने की, मिटाने की, लूटने की जो घोर हिंसा मयी कुप्रवृति बढ़ रही है - फिर चाहे वह धर्मरक्षा, देशहित, मानव-सेवा, लोक-सेवा या समाज-सेवा के नाम पर अथवा किसी भी तंत्र या वाद के सिद्धांत के नाम पर होती हो, उस प्रवृति का मूल हेतु है - सीमित क्षुद्र अहम् के हित का या भोग-सुख का भ्रम -मनुष्य की व्यक्तिगत अदम्य भोग-लालसा अथवा भौतिक वैभव-पद, अधिकार-सुख की अज्ञान मयी क्षुद्र कामना l इसका फल तो दुःख ही होगा l इस अवांछनीय अनर्थ की मूल सहायक तथा प्रेरक होती है - अज्ञान जनित तीन पाप वृतियां - काम, क्रोध और लोभ l
सुख-शान्ति का मार्ग[३३३]
इस समय हमारे जीवन में 'अहम्' का अय्तंत प्रभाव है और वह 'अहम्' संकुचित होते-होते इतना सीमित और क्षुद्र हो गया है कि हमारा हित और हमारा सुख बहुत छोटे-से दायरे में आकर गन्दा और कुवासनापूर्ण हो गया है l इसी से आज का मानव सर्वमय सर्वाधार भगवान् को, एक आत्मा को, विश्व-चराचर को, विश्व के चेतन प्राणियों को, मानव जाति को, राष्ट्र समूहों को , देश को, जाति को और अपने कुटुम्ब को भो प्राय: भूलकर केवल अपने व्यक्तिगत भौतिक वैभव-पद-अधिकार-सुख की प्राप्ति को ही एकमात्र जीवन का ध्येय समझ बैठा है और केवल इसी क्षुद्र सीमित उदेश्य की सिद्धि के लिए चिन्तामग्न और क्रियाशील बना हुए है l उसे न ईश्वर का भय है न धर्म की परवा और न दूसरों के कष्ट-दुःख का विचार - केवल उसका अपना काम सधना चाहिए, भले ही सब का विनाश हो जाये l और जो दूसरों के ह्रास-विनाश पर अपना विकास सिद्ध करना चाहता है, वह तो विनाश को ही प्राप्त होगा, जब हम सभी दूसरों का विनाश करके अपना विकास चाहेंगे, तब सहज ही सब , सब के विनाश में लगेंगे और परिणामत: सभी का विनाश होगा l इस आसुरी भावना से सभी की अधोगति और दुर्गति होगी l
आज समस्त विश्व में और हमारे भारत में भी एक-दूसरे को नीचा दिखने की, गिराने की, हानि पहुँचाने के, मारने की, मिटाने की, लूटने की जो घोर हिंसा मयी कुप्रवृति बढ़ रही है - फिर चाहे वह धर्मरक्षा, देशहित, मानव-सेवा, लोक-सेवा या समाज-सेवा के नाम पर अथवा किसी भी तंत्र या वाद के सिद्धांत के नाम पर होती हो, उस प्रवृति का मूल हेतु है - सीमित क्षुद्र अहम् के हित का या भोग-सुख का भ्रम -मनुष्य की व्यक्तिगत अदम्य भोग-लालसा अथवा भौतिक वैभव-पद, अधिकार-सुख की अज्ञान मयी क्षुद्र कामना l इसका फल तो दुःख ही होगा l इस अवांछनीय अनर्थ की मूल सहायक तथा प्रेरक होती है - अज्ञान जनित तीन पाप वृतियां - काम, क्रोध और लोभ l
सुख-शान्ति का मार्ग[३३३]
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