दूसरे अपना कर्त्तव्य पालन करते हैं या नहीं अथवा कहाँ तक करते हैं, हमें यह देखने की आवश्यकता नहीं है l हमें तो इस बात पर ध्यान रखना है कि हम अपने कर्त्तव्य का पालन कहाँ तक कर रहे हैं और यदि उसमें कहीं त्रुटि हो तो उसे पूर्ण करने कि चेष्टा करनी चाहिए, इसी में लाभ है l
जहाँ तक बने, अपने मन को नित्य-निरन्तर, सद्विचारों से भरे रखना चाहिए l सद्विचारों का मन में संग्रह होता रहे, इसलिए वर्तमान में सत्पुरुषों का संग करना चाहिए, और सदाचार के जीवन-प्रसंगों को, उनके उपदेशों को पढना-सुनना चाहिए और सदाचार को समुन्नत करने वाले ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए l हमारे अन्दर यदि सद्विचारों का बहुत बड़ा संग्रह होगा और उसी से वृतियों लगी रहेंगी तो बाहरी वातावरण के दोषों से और असदवृतियों के प्रभाव से हम अधिकांशत: बचे रहेंगे l हमारे अन्दर उनका प्रवेश होना असंभव नहीं तो बहुत कठिन हो जायेगा और साथ ही हमारे अन्दर भरे हुए सद्विचारों का जो स्वाभाविक ही बाहर निकास होगा, उससे वातावरण की दूषित प्रवृतियों पर बड़ा शुभ प्रभाव पड़ेगा l वातावरण अपनी प्रबलता और दुर्बलता के अनुपात से न्यूनाधिक शुद्ध होगा और जो स्वाभाविक ही लोकसेवा भी बनती रहेगी l
बात यह है कि प्रत्येक मनुष्य के अन्दर अच्छे-बुरे विचार होते हैं और वह जिस वायुमंडल में रहता है, उसमें भी अच्छे-बुरे विचार भरे रहते हैं l वायुमंडल के विचारों का प्रभाव उसमें रहनेवाले व्यक्ति पर पड़ता है और उस व्यक्ति के अन्दर के भाव-विचारों का प्रभाव बाहर के वायुमंडल पर पड़ता है l यह आदान-प्रदान नित्य ही स्वाभाविक चलता रहता है l यदि अच्छे विचारवाला पुरुष जो दूषित वायुमंडल में पहुँच जाता है तो उस दूषित वातावरण का प्रभाव [यदि उस पुरुष के अपने विचार-परमाणु बहुत अधिक और सबल नहीं होते तो उसकी सबलता-दुर्बलता के अनुपात से] पड़ता है और उसके अन्दर से निकलनेवाले भाव-विचारों के परमाणुओं का प्रभाव बाहर के विचार-परमाणुओं पर पड़ता है l
सुख-शान्ति का मार्ग[३३३]
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