निश्चय ही, मनुष्य को फलरूप में जो कुछ भी भला-बुरा,
अनुकूल-प्रतिकूल प्राप्त हो रहा है, वह उसके अपने ही किये हुए कर्म का फल
है; दूसरे तो केवल निमित्तमात्र हैं l अतएव उन पर रोष करके उनके प्रति मन
में द्वेष को स्थान नहीं देना चाहिए l वे तुम्हारा बुरा करने जाकर वस्तुत:
अपना ही बुरा कर रहे है - अपने लिए आप ही दुखों का निर्माण कर रहे हैं;
अतएव दया के पात्र हैं l फिर तुम्हारे मन में द्वेष होगा तो तुम
अन्दर-ही-अन्दर जलते रहोगे, द्वेषाग्नि जलाया करती है और द्वेषवश उनको हानि
पहुँचाने की चेष्टा करोगे, जिससे वैर बद्धमूल होगा, तुम्हारे चित्त की
अशान्ति बढ़ेगी और तुम्हारी साधन-शक्ति , जो अपने तथा दूसरों के
मंगल-सम्पादन में लगती, अमंगल में लगकर सब ओर अमंगल की सृष्टि करती रहेगी l
सर्वोत्तम तो यह है कि बुरा करनेवाले का भला करने कि चेष्टा करके तुम अमृत
वितरण करो , उसके मन के विष को नष्ट कर दो l यही संत का आदर्श है-
मनुष्य को सदा मंगल सोचना तथा मंगल-कार्य करना चाहिए l प्राणिमात्र का मंगल
सोचने,करने वाले का कभी अमंगल नहीं होता l उसका प्रत्येक श्वास मंगलमय बन
जाता है l उससे सूर्य से प्रकाश की भान्ति सहज ही सब को मंगल प्राप्त
होता है l उसका बुरा चाहने वालों का मन भी उसकी मंगलमयता से प्रभावित
होकर बदल जाता है l वह कहीं कदाचित ऐसा भी हो तो उसका अपना अमंगल तो
होता ही नहीं l वहीं बड़ा लाभ है l
अतएव तुम मन में भली-भान्ति सोचकर, दूसरे तुम्हारा अहित - अमंगल कर रहे हैं, इस मान्यता को छोड़कर कभी किसी का बुर मत चाहो l अपने मन को तथा क्रिया को अपना तथा सब का भला सोचने करने में लगाकर सब को सहज ही मित्र बनाने का मार्ग स्वीकार करो l शक्ति का सदुपयोग करके उससे लाभ उठाओ l कभी उसका दुरूपयोग मत करो l जो संकट आया है, उसे भगवान् का मंगल-विधान मानकर स्वीकार करो l उसे टालने की न्याययुक्त चेष्टा करो l इसके लिए प्रधान उपाय है - 'सच्चे विश्वास के साथ भगवान् से कातर प्रार्थना l ' पर ध्यान रहे, प्रार्थना में कभी भी दूसरों का अमंगल न हो l बुद्धि को स्थिर रखकर भगवान् से यही प्रार्थना करो कि 'नाथ ! किसी का भी कभी तनिक भी अमंगल हो ऐसा विचार मेरे मन में कभी न आये, ऐसी चेष्टा मुझ से कभी न बन पड़े l सब का मंगल हो एवं उसी के साथ मेरा भी मंगल हो l मुझ पर जो कष्ट आया है उसे आप हरण कर लें l
सुख-शान्ति का मार्ग[३३३]
अतएव तुम मन में भली-भान्ति सोचकर, दूसरे तुम्हारा अहित - अमंगल कर रहे हैं, इस मान्यता को छोड़कर कभी किसी का बुर मत चाहो l अपने मन को तथा क्रिया को अपना तथा सब का भला सोचने करने में लगाकर सब को सहज ही मित्र बनाने का मार्ग स्वीकार करो l शक्ति का सदुपयोग करके उससे लाभ उठाओ l कभी उसका दुरूपयोग मत करो l जो संकट आया है, उसे भगवान् का मंगल-विधान मानकर स्वीकार करो l उसे टालने की न्याययुक्त चेष्टा करो l इसके लिए प्रधान उपाय है - 'सच्चे विश्वास के साथ भगवान् से कातर प्रार्थना l ' पर ध्यान रहे, प्रार्थना में कभी भी दूसरों का अमंगल न हो l बुद्धि को स्थिर रखकर भगवान् से यही प्रार्थना करो कि 'नाथ ! किसी का भी कभी तनिक भी अमंगल हो ऐसा विचार मेरे मन में कभी न आये, ऐसी चेष्टा मुझ से कभी न बन पड़े l सब का मंगल हो एवं उसी के साथ मेरा भी मंगल हो l मुझ पर जो कष्ट आया है उसे आप हरण कर लें l
सुख-शान्ति का मार्ग[३३३]
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