Monday, 10 December 2012

देवर्षि नारद

  
    अब आगे ............
      यहाँ हमें न तो इस विवाद में पड़ना है कि नारद एक थे या अनेक और न विवाद करके इस का निर्णय करने की इसमें योग्यता ही है। हाँ, हमारी दृष्टि में तो हमें एक ही नारद दिखायी देते हैं, जिन्होंने भिन्न-भिन्न कल्पों और युगों में भगवान् के यंत्र की हैसियत से विभिन्न कार्य किये हैं और कर रहे हैं। यहाँ तो हमें नारदजी के उस कार्य के सम्बन्ध में कुछ कहना है जिसका सम्बन्ध भक्ति से है और वास्तव में यही नारदजी का प्रधान कार्य है। समस्त शास्त्रों के सुपंडित तथा समस्त तत्वों के ज्ञाता और व्याख्याता होकर भी अन्त  में नारदजी भगवान् की भक्ति का ही उपदेश करते हैं। वाल्मीकि, व्यास,शुकदेव,प्रह्लाद, ध्रुव आदि महँ महात्माओं को भगवद्भक्ति में लगाते  हैं। इतना ही नहीं, स्वयं वीणा हाथ में लेकर सभी युगों और सभी समाजों में निर्भय औरनिश्चिन्त हुए सदा-सर्वदा भगवान् के पवित्र नामों का गान करते हुए सारे विश्व के नर-नारियों को पवित्र और भगवन मुखी करते रहते हैं। इन भगवान् श्री नारद ने अपने दो कल्पों के चरित्र का कुछ स्वयं वर्णन किया है। भागवत में उक्त प्रसंग बड़ा ही सुन्दर है। अपने और पाठकों के मनोरंजन के लिए उसका कुछ मर्म नीचे दिया जाता है।
      दिव्यदृष्टि संपन्न महर्षि व्यासजी ने लोगों के कल्याण के लिए वेदों के चार विभाग किये। पंचम वेदरूप नानाख्यानों से पूर्ण महाभारत की रचना की। पुराणों का निर्माण किया। इस प्रकार सब  प्राणियों के कल्याण में  प्रवृत होंने पर भी व्यास भगवान् को तृप्ति नहीं हुई, उनके चित्त में पूर्ण शान्ति  न हुई, उन्हें अपने अन्दर कुछ कमी-सी प्रतीत होती ही रही; तब वे कुछ उदास-से होकर सरस्वती नदी के तट पर बैठकर विचारने लगे - 'मैंने सब कुछ किया, तथापि मुझे अपने अन्दर कुछ अभाव का-सा अनुभव क्यों हो रहा है ? क्या मैंने भागवत धर्मों का विस्तार से निरूपण नहीं किया ? क्योंकि भागवत धर्म ही परमेश्वर और परमहंस भक्तों के प्रिय हैं।' वे इस प्रकार सोच ही रहे थे कि हरिगुण गाते प्रसन्नवदन श्रीनारद जी - वहाँ आ पहुँचे l  आवभगत और कुशल-समाचार पूछने-कहने के बाद श्री व्यासजी ने अपनी स्थिति बतलाकर देवर्षि से उसके लिए उपाय पूछा।'

प्रेम-दर्शन [341]
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Ram