अब आगे .........
ऐसा करते-करते श्रीभगवान में मेरी भक्ति हो गयी। हे महामुनि ! पहले भगवान् में मेरी रूचि हुई, फिर मेरी स्थिर दृढ मति हो गयी। उस विशुद्ध दृढ बुद्धि के प्रभाव से मैं अपने मायारहित शुद्ध परब्रह्मरूप में समस्त सत-असत प्रपंच को माया से कल्पित देखने लगा। इस प्रकार वर्षा और शरद दोनोंन ऋतुओं भर वे महात्मा प्रतिदिन भगवान् के निर्मल यश का गान करते रहे, जिसके सुनने से मेरे ह्रदय में रजोगुण और तमोगुण को नाश करनेवाली सात्विकी भक्ति उत्पन्न हो गयी। मुझ को अनुरागी, आश्रित, जितेन्द्रिय, श्रद्धालु और पापहीन बालकरूप दस समझकर दीनों पर दया करनेवाले उन महात्माओं ने गाँव से जाते समय परम कृपा करके साक्षात् भगवान् के द्वारा कहा हुआ गुहयतम ज्ञान मुझ से कहा, जिस ज्ञान के द्वारा मैं भगवान् वासुदेव की माया के प्रभाव को जान गया,जिसके जानने से पुरुष परमात्मा के परमपद को प्राप्त होता है।
इसके अनन्तर मुझे ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मा तो दूसरी जगह चले गए। मैं उनके बतलाने के अनुसार भजन करता रहा। मेरी माता के मैं ही एकमात्र पुत्र था, जिससे मुझ पर माता का बड़ा भारी स्नेह था।वह मुझको ही अनन्य गति समझती थी। एक दिन कालप्रेरित सर्प ने मेरी स्नेहमयी माता को डस लिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। तब 'भक्तों का कल्याण चाहनेवाले भगवान् ने मुझ पर कृपा की' ऐसा मानकर मैं उत्तर दिशा की ओर चल दिया और वहाँ एक घने वन में पहुंचकर नदी-किनारे एक पीपल के वृक्ष की जड़ में बैठकर भगवान् का चिन्तन और चित्त को एकाग्र करके भक्तिपूर्वक भगवान् के चरण-कमलों का ध्यान करने लगा। उस समय प्रेमावेश से मेरी आँखों में आनन्द के आंसू भर आये और मैंने देखा, मेरे ह्रदय में भगवान् श्रीहरि प्रकट हो गए। भगवान् के दर्शन पाते ही प्रेम की बाद-सी आ गयी।मेरे रोम खड़े हो गए। मैं आनन्द के समुद्र में डूब गया और संसार सहित अपने-आप को भूल गया।
सहसा भगवान् का वह मनमोहन परम सुन्दर रूप अन्तर्हित हो गया।तब मुझे बड़ा दुःख हुआ। मैं पुनः दर्शनार्थ चेष्टा करने लगा, तब मैंने आकाशवाणी से सुना कि 'हे बालक ! इस जन्म में तुझ को मेरे दर्शन नहीं होंगे, प्रेम बढ़ाने के लिये मैंने एक बार तुझे दर्शन दिए हैं। अल्पकाल के सत्संग के प्रताप से तेरी मुझ में दृढ भक्ति हुई है। तू इस शरीर को छोड़कर मेरा निजजन होगा, मुझ में तेरी अचल बुद्धि होगी और मेरी कृपा से कल्पान्त में भी तुझे इस जन्म की बातें याद रहेंगी।' तब मैंने अपने को भगवान् का कृपापात्र जाना और झुककर प्रणाम किया और लज्जा छोड़कर भगवान् के परम गुप्त कल्यानमय नाम और गुणों का कीर्तन और स्मरण करता हुआ सन्तोष के साथ अहंकार और इर्ष्या त्यागकर निरीह हुआ संसार में विचरने लगा। मैंने श्रीकृष्ण में मन लगाकर संसार का संग त्याग दिया।
प्रेम-दर्शन [341]
ऐसा करते-करते श्रीभगवान में मेरी भक्ति हो गयी। हे महामुनि ! पहले भगवान् में मेरी रूचि हुई, फिर मेरी स्थिर दृढ मति हो गयी। उस विशुद्ध दृढ बुद्धि के प्रभाव से मैं अपने मायारहित शुद्ध परब्रह्मरूप में समस्त सत-असत प्रपंच को माया से कल्पित देखने लगा। इस प्रकार वर्षा और शरद दोनोंन ऋतुओं भर वे महात्मा प्रतिदिन भगवान् के निर्मल यश का गान करते रहे, जिसके सुनने से मेरे ह्रदय में रजोगुण और तमोगुण को नाश करनेवाली सात्विकी भक्ति उत्पन्न हो गयी। मुझ को अनुरागी, आश्रित, जितेन्द्रिय, श्रद्धालु और पापहीन बालकरूप दस समझकर दीनों पर दया करनेवाले उन महात्माओं ने गाँव से जाते समय परम कृपा करके साक्षात् भगवान् के द्वारा कहा हुआ गुहयतम ज्ञान मुझ से कहा, जिस ज्ञान के द्वारा मैं भगवान् वासुदेव की माया के प्रभाव को जान गया,जिसके जानने से पुरुष परमात्मा के परमपद को प्राप्त होता है।
इसके अनन्तर मुझे ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मा तो दूसरी जगह चले गए। मैं उनके बतलाने के अनुसार भजन करता रहा। मेरी माता के मैं ही एकमात्र पुत्र था, जिससे मुझ पर माता का बड़ा भारी स्नेह था।वह मुझको ही अनन्य गति समझती थी। एक दिन कालप्रेरित सर्प ने मेरी स्नेहमयी माता को डस लिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। तब 'भक्तों का कल्याण चाहनेवाले भगवान् ने मुझ पर कृपा की' ऐसा मानकर मैं उत्तर दिशा की ओर चल दिया और वहाँ एक घने वन में पहुंचकर नदी-किनारे एक पीपल के वृक्ष की जड़ में बैठकर भगवान् का चिन्तन और चित्त को एकाग्र करके भक्तिपूर्वक भगवान् के चरण-कमलों का ध्यान करने लगा। उस समय प्रेमावेश से मेरी आँखों में आनन्द के आंसू भर आये और मैंने देखा, मेरे ह्रदय में भगवान् श्रीहरि प्रकट हो गए। भगवान् के दर्शन पाते ही प्रेम की बाद-सी आ गयी।मेरे रोम खड़े हो गए। मैं आनन्द के समुद्र में डूब गया और संसार सहित अपने-आप को भूल गया।
सहसा भगवान् का वह मनमोहन परम सुन्दर रूप अन्तर्हित हो गया।तब मुझे बड़ा दुःख हुआ। मैं पुनः दर्शनार्थ चेष्टा करने लगा, तब मैंने आकाशवाणी से सुना कि 'हे बालक ! इस जन्म में तुझ को मेरे दर्शन नहीं होंगे, प्रेम बढ़ाने के लिये मैंने एक बार तुझे दर्शन दिए हैं। अल्पकाल के सत्संग के प्रताप से तेरी मुझ में दृढ भक्ति हुई है। तू इस शरीर को छोड़कर मेरा निजजन होगा, मुझ में तेरी अचल बुद्धि होगी और मेरी कृपा से कल्पान्त में भी तुझे इस जन्म की बातें याद रहेंगी।' तब मैंने अपने को भगवान् का कृपापात्र जाना और झुककर प्रणाम किया और लज्जा छोड़कर भगवान् के परम गुप्त कल्यानमय नाम और गुणों का कीर्तन और स्मरण करता हुआ सन्तोष के साथ अहंकार और इर्ष्या त्यागकर निरीह हुआ संसार में विचरने लगा। मैंने श्रीकृष्ण में मन लगाकर संसार का संग त्याग दिया।
प्रेम-दर्शन [341]
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