Saturday 15 December 2012

प्रेमरुपा भक्ति का स्वरुप


अब आगे .........
        काकभुशुन्डी जी महाराज कहते हैं -
        जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई l
                             कोटि   भाँति   कोऊ   करे  उपाई।
        तथा   मोच्छ   सुख   सुनु   खगराई।      
                             रहि न सकई हरि भगति  बिहाई।।

        इसीलिये यहाँ सिद्धि का अर्थ 'कृतकृत्यता' लेना चाहिये। भक्त को किसी वस्तु के अभाव का बोध नहीं रहता। वह प्रियतम भगवान् के प्रेम को पाकर सर्वथा पूर्णकाम हो जाता है। यह पूर्णकामता ही उसका अमर होंना है। जब तक मनुष्य कृतकृत्य या पूर्णकाम नहीं होता, तब तक उसे बारम्बार कर्मवश आना-जाना पड़ता है। पूर्णकाम भक्त सृष्टि और संहार दोनों में भगवान् की लीला का प्रत्यक्ष अनुभव कर मृत्यु को खेल समझता है। वास्तव में उसके लिए मृत्यु की ही मृत्यु हो जाती है। प्रभु-लीला के सिवा मृत्युसंज्ञक,कोई भयावनी वस्तु उसके ज्ञान में रह ही नहीं जाती और इसलिये वह तृप्त हो जाता है। जबतक जगत के पदार्थों की ईश्वर-लीला से अलग कोई सत्ता रहती है तभी तक उनको सुखद या दुःख प्रद समझकर मनुष्य निरन्तर  नये-नये सुखप्रद पदार्थों की इच्छा करता हुआ अतृप्त रहता है। जब सबका मूल  स्रोत सबका यथार्थ पूर्ण स्वरुप उसे मिल जाता है तब उन खण्ड और अपूर्ण पदार्थों की ओर उसका मन ही नहीं जाता। वह पूर्ण को पाकर तृप्त हो जाता है।

प्रेम-दर्शन [341]  
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Ram