अब आगे .........
मधुकर स्याम हमारे चोर।
मन हर लियो माधुरी मूरति, निरख नयन की कोर।।
वे प्रेमी भक्त के चित्त को ऐसी चातुरी से चुराकर अपनी सम्पत्ति बना लेते हैं कि उस पर दूसरे की कभी नज़र भी नहीं पड़ सकती। दूसरा कोई दीखे तब न कहीं उसमें आसक्ति या प्रीति हो, परन्तु जहाँ मन में दूसरे की कल्पना तक को स्थान नहीं मिलता, वहाँ किस में कैसे आसक्ति या रति हो। प्रेममयी गोपियों ने कहा है -
स्याम तन स्याम मन स्याम है हमारो धन,
आठों जैम ऊधौ हमें स्याम ही सों काम है।।
स्याम हिये स्याम जिये स्याम बिनु नाहिं लिये,
आन्धे की सी लाकरी अधार स्याम नाम है।।
स्याम गति स्याम मति स्याम ही है प्रानपति,
स्याम सुखदाई सों भलाई सोभाधाम है।।
ऊधौ तुम भए बौरे पाती लैके आए दौरे,
जोग कहाँ राखैं यहाँ रोम-रोम स्याम है।।
जब एक प्रियतम श्रीकृष्ण को छोड़कर दूसरे का मन में प्रवेश ही निषिद्ध है तब दूसरे किसी की प्राप्ति के लिये उत्साह तो हो ही कैसे ? कोई किसी को देखे, सुने, उसके लिये मन में इच्छा उत्पन्न हो, तब न उसके लिये प्रयत्न किया जाए ? मन किसी में रमे, तब न उसे पाने के लिये उत्साह हो। मन तो पहले से ही किसी एक का हो गया;उसने मन पर पूरा अधिकार जमा लिया और स्वयं उसमें आकर सदा के लिये बस गया। दूसरे किसी के लिये कोई गुंजाइश ही नहीं रह गयी; यदि कोई आता भी है तो उसे दूर से ही लौट जाना पड़ता है। क्या करे, जगह ही नहीं रही।
प्रेम-दर्शन [341]
मधुकर स्याम हमारे चोर।
मन हर लियो माधुरी मूरति, निरख नयन की कोर।।
वे प्रेमी भक्त के चित्त को ऐसी चातुरी से चुराकर अपनी सम्पत्ति बना लेते हैं कि उस पर दूसरे की कभी नज़र भी नहीं पड़ सकती। दूसरा कोई दीखे तब न कहीं उसमें आसक्ति या प्रीति हो, परन्तु जहाँ मन में दूसरे की कल्पना तक को स्थान नहीं मिलता, वहाँ किस में कैसे आसक्ति या रति हो। प्रेममयी गोपियों ने कहा है -
स्याम तन स्याम मन स्याम है हमारो धन,
आठों जैम ऊधौ हमें स्याम ही सों काम है।।
स्याम हिये स्याम जिये स्याम बिनु नाहिं लिये,
आन्धे की सी लाकरी अधार स्याम नाम है।।
स्याम गति स्याम मति स्याम ही है प्रानपति,
स्याम सुखदाई सों भलाई सोभाधाम है।।
ऊधौ तुम भए बौरे पाती लैके आए दौरे,
जोग कहाँ राखैं यहाँ रोम-रोम स्याम है।।
जब एक प्रियतम श्रीकृष्ण को छोड़कर दूसरे का मन में प्रवेश ही निषिद्ध है तब दूसरे किसी की प्राप्ति के लिये उत्साह तो हो ही कैसे ? कोई किसी को देखे, सुने, उसके लिये मन में इच्छा उत्पन्न हो, तब न उसके लिये प्रयत्न किया जाए ? मन किसी में रमे, तब न उसे पाने के लिये उत्साह हो। मन तो पहले से ही किसी एक का हो गया;उसने मन पर पूरा अधिकार जमा लिया और स्वयं उसमें आकर सदा के लिये बस गया। दूसरे किसी के लिये कोई गुंजाइश ही नहीं रह गयी; यदि कोई आता भी है तो उसे दूर से ही लौट जाना पड़ता है। क्या करे, जगह ही नहीं रही।
प्रेम-दर्शन [341]
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