अब आगे ..........
(अपने प्रियतम भगवान् को छोड़कर) दूसरे आश्रयों के त्याग का नाम अनन्यता है।प्रेमी भक्त के मन में अपने प्रियतम भगवान् के सिवा अन्य किसी के होने की ही कल्पना नहीं होती, तब वह दूसरे का भजन कैसे करे ? वह तो चराचर विश्व को अपने प्रियतम का शरीर जानता है, उसे कहीं दूसरा दीखता ही नहीं -
उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहूँ आन पुरुष जग नाहीं।।
रहीम कहते हैं कि आँखों में प्यारे की मधुर छबि ऐसी समां रही है कि दूसरी किसी छबि के लिये स्थान ही नहीं रह गया - यदि कोई उससे दूसरे की बात कहता है तो वह उसे सुनना ही नहीं चाहता या उसे सुनायी ही नहीं पड़ती। यदि कहीं जबरदस्ती सुननी पड़ती भी है तो उसका मन उधर आकर्षित होता ही नहीं।शिवजी की अनन्योपासिका पार्वती जी को सप्तर्षियों ने महादेवजी के अनेक दोष बतलाकर उनसे मन हटाने और सर्वसदगुणसम्पन्न भगवान् विष्णु में मन लगाने को कहा, तब शिवप्रेम की मूर्ति भगवती ने उत्तर दिया -
जन्म कोटि लगि रगर हमारी। ब़रऊँ संभु न त रहऊँ कुआरी।।
महादेव अवगुन भवन बिष्णु सकल गुन धाम।
जेहि कर मनु राम जाहि सन तेहि तेही सन काम।।
इस प्रकार प्रेमी भक्त एकमात्र अपने प्रियतम भगवान् को ही जानकर, उसी को सर्वस्व मानकर, जैसे मछली को केवल जल की आश्रय होता है, वैसे ही केवल भगवान् का ही आश्रय लेकर सारी चेष्टाएँ उसीके लिये करता है।
प्रेम-दर्शन [341]
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