Saturday, 22 December 2012

मार्त्गीते !


  ॥ श्री हरि: ॥

मातर्गीते  !

      माता श्रीभगवदगीते ! अनन्त असीम गुणातीत विश्वातीत  विशुद्ध स्वतंन्त्र सत्-चित-आनंदरूप परब्रह्म की अभिन्न ज्योति ! विश्वलीला में प्रवृत सृजन-संहार-मूर्ती, नियंन्त्रण-कला निपुण, सर्वशक्तिमान, सर्वसंचालक गुणविशिष्ठ  भगवान्  की चिरसंगिनी ! अपनी विश्वातीत  सत्ता में नित्य अनन्त  रूप से स्थित रहते हुए भी विश्वलीला  में अपनी लीला से ही नयनाभिराम त्रिभुवनकमनीय पूर्णसत्व दिव्य नरदेह धारी भगवान्  की दैवी वाणी ! विश्व  में असंख्य प्राणियों के अंतर्गत भिन्न-भिन्न भावोसे अंशरूप में प्रतिभासित, अपनी ही माया से  लीला-हेतु-स्वरुप विस्मृत निन्द्रित-से प्रतीत होनेवाले सनातन चेतन आत्मा को लीला के लिए ही प्रबुद्ध करनेवाली दिव्य-दुन्दुभी ! सम्पूर्ण विश्व  के समस्त चेतनाचेतन पदार्थों में ग्रीष्म-वर्षा, शरद-वसन्त, शीत-उषण, पर्वत-सागर, स्वर्ण-लौष्ट, शिशु-वृद्ध, स्त्री-पुरुष, देव-दानव, सुन्दर-भयानक, करूण-रौद्र, हास्य-क्रन्दन, जन्म-मृत्यु और सृष्टि -प्रलय आदि समस्त भावो में, सभी के अंदर से अपने नित्य सत्य केन्द्रिभूत सौन्दर्य और अखंडपूर्ण अस्तित्व को अभिव्यक्त करनेवाले विश्वव्यापी  भगवान्  की प्रकृत मूर्ती का बारंबार  करने वाली माँ ! तुझे बार बार नमस्कार है |

       माता ! तुझ दयामयी के विश्व में विद्यमान रहते हम विश्ववासियो की यह दुर्दशा क्यों हो रही है? स्वयं भगवान्  श्रीकृष्ण की वान्ग्मयी मूर्ती ! तू भगवान्  का हृदय  है, तू मार्गभ्रष्टो की पथ-प्रदर्शिका है, तू घन-अन्धकारमें दिव्य प्रखर प्रकाश है, तू गिरे हुए को उठाती है, चलनेवाले को विशेष गतिशील बनाती है, शरणागत का हाथ-पकड़ कर उसे परमात्मा के अभय चरणकमलो में पंहुचा देती है | ऐसी अद्भूत लीलामयी शांतिदायिनी  माता के रहते हम असहाय और अनाथ की भाँति क्यों दु:खी हो रहे है?
      
      देवी ! हमारा ही अपराध है | हमने तेरे स्वरुप को यथार्थ नहीं पहचाना | तेरी स्नेह-पूरित मुख-छवि को श्रद्धासमन्वित तर्कशून्य  सरल दृष्टी से नहीं देखा | इसी से भूल भुलैया में पड़ा है, इसी से तेरे अगाध आनंदबुद्धि में मतवाले की तरह कूद कर जोर से डुबकी लगाने में प्राण हिचकिचाते है; इसी से तेरे नित्य प्रज्वल्लित प्रचंड ज्ञानानल में अविद्या-राशी को फेक-कर फूक डालने में संकोच होता है | इसी से घर-घर में तेरी प्रतिमा की प्रतिष्ठा होने पर भी विधि-संगत पूजा नहीं की जा सकती, इसी से निराधार अबोध मात्परायण  शिशु की भाँन्ति तेरे चरण-प्रान्त में हम अपने को लुटा नहीं देते, इसी से तेरी प्रेम मदिरा का पान कर तेरे मोहन-मन्त्र से मुग्ध होकर दिव्यानंद की दीवाने नहीं बन रहे है | अरे ! इसी से आज अमूल्य रत्न-राशि के हाथ में रहते भी हम शांति धन से शून्य दीन-हीन राह के भिखारी बने दारुण दाह से दग्ध हो रहे है |


नारायण                                    नारायण                            नारायण
शेष अगले ब्लॉग में !!!
भगवच्चर्चा, हनुमानप्रसाद पोद्दार, गीताप्रेस गोरखपुर, कोड ८२०, पेज ५६१

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Ram